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फिर भी हरिभद्र के पूर्व तक प्रायः जैन दार्शनिक बौद्ध दर्शन को एकान्त क्षणिकवादी और अनात्मवादी मानकर उसकी समीक्षा करते रहे। तत्त्वार्थवार्त्तिक के लेखक अकलंक ने भी बौद्धों के तत्त्वमीमांसीय और ज्ञानमीमांसीय मन्तव्यों की समीक्षा की है। वस्तुतः भारतीय दर्शन के दर्शन-व्यवस्था युग और प्रमाण-व्यवस्था युग, दर्शन निकायों के पारस्परिक खण्डन-मण्डन के काल ही रहे हैं। जैन दार्शनिक भी बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा के संदर्भ में इसके अपवाद नहीं हैं। हरिभद्र के पूर्ववर्ती सभी जैन दार्शनिकों ने भी बौद्ध-दर्शन और उसकी प्रमाण-व्यवस्था की समीक्षा की और समीक्षा का यह क्रम आगे भी चलता रहा, हरिभद्र के पश्चात् भी विद्यानंद, सुमति, प्रभाचंद्र, वादिदेवसूरि, माणिक्यनन्दी, अभयदेवसूरि रत्नप्रभसूरि, चंद्रसेनसूरि, हेमचंद्र आदि जैन दार्शनिकों ने बौद्धों के क्षणिकवाद, सन्ततिवाद, प्रमाणलक्षण, प्रमाण की अव्यवसायात्मकता, प्रमाण का मात्र स्व-प्रकाशक होना, शब्द
और अर्थ में सम्बंध का अभाव, प्रत्यक्ष की निर्विकल्पना, अपोहवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद आदि की जमकर समीक्षा की। इन सबके बीच आचार्य हरिभद्र का एक ऐसा व्यक्तित्व उभरा जिसने बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा करते हुए उसमें निहित सत्यता का उदारहृदय से स्वागत किया और दिनांग के न्यायप्रवेश पर निष्पक्ष टीका लिखी। खण्डन-मण्डन के इस युग में हरिभद्र का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण अवदान है- दर्शन-संग्राहक ग्रंथों की रचना की। शास्त्रवार्तासमुच्चय और षट्दर्शनसमुच्चय उनके इसी कोटि के ग्रंथ हैं। दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में बौद्ध दर्शन
यद्यपि दर्शन-संग्राहक ग्रंथों में सर्वदर्शनसंग्रह को प्रथम स्थान दिया जाता है और उसे आदि शंकराचार्य की कृति बताया जाता है, किंतु वह आदि शंकराचार्य की कृति है, इस सम्बंध में अनेक विप्रतिपत्तियां हैं। यहां उन सबका उल्लेख सम्भव नहीं है। मेरी दृष्टि में दर्शन-संग्राहक ग्रंथों की रचना का द्वक्षर हरिभद्र ने ही उद्घाटित किया और षड्दर्शनसमुच्चय की रचना कर खण्डन-मण्डन के इस युग में एक नवीन दृष्टि दी।
ज्ञातव्य है कि भारत के दर्शन-संग्राहक सभी ग्रंथों में हमें बौद्ध धर्म-दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों की जानकारी उपलब्ध होती है। भारतीय दार्शनिक ग्रंथों में बौद्ध धर्मदर्शन की स्थिति को समझने के लिए इन दर्शन-संग्राहक ग्रंथों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
___जैन दर्शन की अनेकान्तदृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप कुछ जैनाचार्यों ने उदारता का परिचय तो अवश्य दिया है, फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं है,
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