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निर्माण को रोकता है तो दूसरी ओर पूर्व बद्ध ग्रंथियों के खुलने से राग-द्वेष जन्य विकार दूर होने लगते हैं और व्यक्ति निर्ग्रन्थ अवस्था को प्राप्त होता है। अंत में धर्म - विपश्यना का का क्रम आता है, इसमें संसार की वस्तुओं के क्षणिक और अनात्म स्वरूप का बोध हो जाता है। यहां धर्म-विपश्यना का मतलब वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान भी है। इससे नई कामनाओं का जन्म भी नहीं होता है, फलतः राग-द्वेष की ग्रंथियां समाप्त हो जाती है। वीतराग और वीत- तृष्ण अवस्था का प्रकटण होता है । अन्य दर्शनों की भाषा में कहे तो कैवल्य की प्राप्ति और उसी में रमण करने की स्थिति है।
इस विपश्यना की साधना में करणीय कुछ भी नहीं होता है, केवल अपने को साक्षीभाव या ज्ञाता-दृष्टा भाव में स्थित रखना पड़ता है। आत्म सजगता की यह दशा व्यक्ति के विकार विमुक्ति की दशा है। ऐसा साधक जब तक संसार में रहता है, तब तक देहातीत होकर जीता है और शरीर के छूटने पर निर्वाण या मोक्ष को प्राप्त होता है, उसका संसार में पुनरागमन सम्भव नहीं होता, क्योंकि इसमें भोगकांक्षा या रागद्वेष के तत्त्व ही नहीं होते हैं। सामान्य रूप से कहे तो विपश्यना की साधना राग-द्वेष की ग्रंथियों को खोलने की और चित्त-विकारों को दूर करने की साधना है, जो व्यक्ति को परमसुख की प्राप्ति में साधनभत होती है।
पं. कन्हैयालाल लोढ़ा ने परमसुख विपश्यना नामक प्रस्तुत कृति में विपश्यना के सम्यक् स्वरूप को अनुभव के आधार पर स्पष्ट किया है, यह केवल शाब्दिक विमर्श नहीं है, एक स्वानुभूत तथ्य है।
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