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मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार ब्रह्म-विहारों, दान, शील, शांति, वीर्य, ध्यान
और प्रज्ञा इन छ: पारममिताओं की चर्चा की है। इनके साथ ही ध्यान के पांच अंगों का भी उल्लेख है- वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता या समाधि। विपश्यना का साधक इन चार ब्रह्म-विहारों, छ: पारमिताओं और पांच ध्यानांगों से चेतना को विकार मुक्त करके परमसुख की अनुभूति करता है।
वह परमसुख कैसे प्राप्त हो? इसे स्पष्ट करते हुए पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा का कथन है कि कामनाओं के त्याग से निष्कामदशा प्राप्त होने पर, जो शांति मिलती है, वही अक्षय सुख है, क्योंकि वह दुःख का पूर्ण अभाव है तथा पुनः कामना के उत्पन्न नहीं होने से वह सुख सदैव बना रहता है, क्षीण नहीं होता। इसी प्रकार ममता के त्याग से शरीर और संसार से संबंध विच्छेद हो जाने पर उस चेतसिक सुख में कोई बाधा नहीं रहती यह भवतृष्णा या रोग के समाप्त होने पर होता है। अहंकार या मोह के त्याग से द्वेष का उपशमन हो जाता है, मेरे और पराये का भाव समाप्त हो जाता है। इससे जो शांति मिलती है वह निरंतर बनी रहती है। विपश्यना की साधना में तत्त्वों के प्रति विद्वेष का भाव समाप्त हो जाता है और इसलिए विपश्यना को परमसुख कहा गया है। अतः पं. कन्हैयालालजी लोढ़ा कृत इस पुस्तक का यह नामकरण समुचित ही प्रतीत होता है।
इस परमसुख की प्राप्ति के लिए विपश्यना की साधना कैसे की जाए इसे स्पष्ट करते हुए उसके निम्न पांच अंग बतलाए गए हैं - 1. अनापनसति अर्थात् श्वासोच्छवास की स्मृति या उसके प्रति सजगता, यह विपश्यना की प्रथम भूमिका है। इसमें चित्तवृत्ति की एकाग्रता एवं सजगता का अभ्यास होने से विकल्प समाप्त होने लगते हैं। उसके पश्चात काय-विपश्यना का क्रम आता है। काय-विपश्यना में शरीर के भीतर क्या घटनाएं घटित हो रही हैं, उन्हें सजगतापूर्वक देखा जाता है। इससे शरीर से सम्बंधित मोह छूट जाता है। अन्य दर्शनों के संदर्भ में कहें तो आत्म-अनात्म का विवेक जाग्रत हो जाता है। तीसरे क्रम पर वेदना-विपश्यना होती है। यहां संवेदनाएं क्षणिक एवं परिवर्तनशील होने से उनकी अनात्मता और क्षणिकता का बोध हो जाता है और इससे उनके प्रति रागभाव या ममता समाप्त हो जाती है। विपश्यना की साधना में वेदना-विपश्यना के पश्चात् चित्त-विपश्यना का क्रम आता है। इसमें व्यक्ति अपने ही चित्त की वृत्तियों को देखता है, चित्तवृत्तियों के प्रति सजगता होने से मन के भीतरी तल पर स्थित राग, द्वेष और मोह की ग्रंथियां खुलने लगती है। इनके प्रति सजगता का भाव एक ओर नवीन ग्रंथियों के
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