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________________ स्वरूप के संबंध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रान्ति प्रचलित रही है उसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। सम्भवतः, ये विद्वान अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्टरूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहे हैं। यही कारण है कि डॉ.उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं, जबकि वह मूलतः महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का। अर्धमागधी में तो मध्यवर्ती 'त्' यथावत् रहता है। यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा में कालक्रम से परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री प्राकृत की 'य' श्रुति का प्रभाव आया है; किन्तु यह मानना पूर्णतः मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। वास्तविकता यह है कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वल्लभी वाचनाओं के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतों से प्रभावित हए हैं। टाँटियाजी जैसे विद्वान् इस प्रकार की मिथ्या धारणा को प्रतिपादित करें कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए हैं, यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि टाँटियाजी का यह कथन कि 'पाली त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और फिर पाली और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' यह यदि सत्य है तो उन्हें या सुदीपजी को इसके प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए। वस्तुतः, जब किसी बोली को साहित्यिक भाषा का स्वरूप दिया जाता है, तो एकरूपता के लिए नियम या व्यवस्था आवश्यक होती है और ये नियम भाषा के व्याकरण के द्वारा बनाये जाते हैं। विभिन्न प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया तो उनके लिए भी व्याकरण के नियम आवश्यक हुए और ये व्याकरण के नियम मुख्यतः संस्कृत से गृहीत किए गए। जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बतायी जाती है, तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्द रूप माने गये हैं? उदाहरण के तौर पर, जब हम शौरसेनी के व्याकरण की चर्चा करते हैं, तो हम यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का आदर्श, अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर जिसकी चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्दरूप हैं। किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता है, फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है, जब साहित्यिक भाषा बन जाती है तब उसके लिए व्याकरण के
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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