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________________ प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्र प्राकृत का विकास हुआ। प्राकृत के मागधी, पैशाची, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि भेद तत्तत् प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं, न कि किसी प्राकृत-विशेष से। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती से पूर्व का उपलब्ध नहीं है, साथ ही साथ उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिए अलग-अलग मॉडल अपनाये गये हैं। वररूचि के लिए शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत है, जबकि हेमचन्द्र के लिए शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) प्राकृत है, अतः 'प्रकृति' का अर्थ आदर्श या मॉडल है, अन्यथा हेमचन्द्र के शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत्' (8/4/286) का अर्थ होगा-शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को कदापि मान्य नहीं होगा। क्या अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे? प्राकृतविद्या, जनवरी-मार्च 1996 के सम्पादकीय में डॉ.सुदीपजी जैन ने प्रो. टाँटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि 'श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः अर्धमागधी के रूप में बदल गया।' इस संदर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य शौरसेनी प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी की मुख्य विशेषता मध्यवर्ती असंयुक्त 'त्' के स्थान पर 'द्' का प्रभाव तो दिखायी देता। इसके विपरीत, हम पाते हैं कि दिगम्बर-परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है और इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो.ए.एन.उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि 'प्रवचनसार' की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ उत्तराधिकार के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। इसमें स्वर परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यंजनों के परिवर्तन 'य्' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर परम्परा के विद्वान् प्रो.खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस प्रकार, यहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए, अपितु इससे तो यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुनः, अर्धमागधी भाषा के
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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