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________________ अर्थ, उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे स्वयं लिखते हैं, 'आज जितने भी प्राकृत व्याकरणशास्त्र उपलब्ध हैं, वे सभी संस्कृत भाषा में हैं एवं संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित हैं, अतएव उनमें 'प्रकृतिः संस्कृतम्' जैसे प्रयोग देखकर कतिपय जन ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृत भाषा संस्कृत भाषा से उत्पन्न हुई हो-ऐसा अर्थ कदापि नहीं हैप्राकृतविद्या, जुलाई-सितम्बर 1996, पृ.14। भाई सुदीपजी ! जब शौरसेनी की बारी आती है, तब आप 'प्रकृति' का अर्थ 'आधार/मॉडल' करें और जब मागधी का प्रश्न आये तब आप 'प्रकृति शौरसेनी' का अर्थ, मागधी शौरसेनी से उत्पन्न हुई-ऐसा करें, यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या केवल शौरसेनी को प्राचीन और मागधी को अर्वाचीन बताने के लिए। वस्तुतः, प्राकृत और संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौनसी है? संस्कृत शब्द स्वयं इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम भाषा है। प्राकृत शब्दों एवं शब्दरूपों का व्याकरण द्वारा संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती है, उसे ही संस्कृत कहा जा सकता है और जिसे संस्कारित न किया गया हो, वह संस्कृत कैसे होगी? वस्तुतः, प्राकृत स्वाभाविक या सहज बोली है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत भाषा निर्मित हुई है। इस दृष्टि से प्राकृत मूल भाषा है और संस्कृत उससे उद्भूत हुई है। ___ हेमचन्द्राचार्य के पूर्व नमिसाधु ने रुद्रट के 'काव्यालंकार' की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर दिया है। वे लिखते हैं सकलजगज्जन्तुनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सैव वा प्राकृतम्। आरिसवयणे सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् पूर्वकृतं प्राकृतम्, बालमहिलासुबोध-सकलभाषा-निन्धनभूत-वचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कार-करणात् च समासादितविशेषं सत् संस्कृतादुत्तरभेदोनाम्नोति।-काव्यालङ्कार, नमिसाधु 2/12. अर्थात्, जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि के संस्कार से रहित सहज वचन-व्यापार है, उससे निःसृत भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि के लिए भी सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से (प्राक् कृत) सभी भाषाओं की रचना का आधार है, वह तो मेघ से निर्मुक्त जल की तरह सहज है, उसी का देश-प्रदेश के आधार पर किया
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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