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अभिनिवेश से युक्त अध्ययन की भी होगी। पुनः, शौरसेनी, और अर्धमागधी आगमों का तुलनात्मक अध्ययन भी उनमें निहित सत्य को यथार्थ रूप से आलोकित कर सकेगा। आशा है, युवा विद्वान् मेरी इस प्रार्थना पर ध्यान देंगे।
सन्दर्भ : 1. प्रो.सागरमल जैन, 'अर्धमागधी आगमसाहित्यः एक विमर्श', प्रो.सागरमल जैन
अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी 1998 ई., द्वितीय खण्ड, पृष्ठ 7. 2. देखें-आचाराङ्ग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 9, उपधान श्रुत. 3. देखें-ऋषिभाषितः एक अध्ययन डॉ.सागरमल जैन, पृ.4-9. 4. आवश्यकचूर्णि, भाग 2, पृ.187. 5. देखें-(अ) श्रमण, वर्ष 41, अंक 10, 12 अक्टूबर-दिसम्बर 98 डॉ.के.आर.चन्द्रा
क्षेत्रज्ञ शब्द के विविध प्राकृत रूपों की कथा और उसका अर्धमागधी रूपान्तर, पृ.49-56. (ब) के.आर.चन्द्रा, 'आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पात्रों की समीक्षा', पं. बेचरदास दोशी स्मृति ग्रन्थ, वाराणसी। 1990 ई., हिन्दी खण्ड,
पृष्ठ 1-7. 6. प्रो.सागरमल जैन एवं प्रो.एम.ए.ढांकी, 'रामपुत्त या रामगुप्तः सूत्रकृताङ्ग के संदर्भ में' ,
पं. बेचरदास दोशी स्मृतिग्रन्थ, पृ.8-11. 7. () स्थानांग, () समवायांग, ( ) नन्दी, () नन्दीचूर्णि, () तत्त्वार्थभाष्य,
() सर्वार्थसिद्धि, () धवला, () जयधवला. 8. प्रो. सागरमल जैन, 'अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु', पं. दलसुखभाई मालवणिया
अभिनन्दन ग्रन्थ, वाराणसी, 1991 ई. ; हिन्दी खण्ड, पृष्ठ 12-18.
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