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________________ प्राचीनतम उल्लेख तो अंग और अंगबाह्य के रूप में ही मिलते हैं, इनमें भी 12 अंगों का तो स्पष्ट उल्लेख है, किन्तु अंगबाह्य की संख्या का स्पष्ट निर्देश कहीं नहीं है। पुनः, नन्दी और तत्त्वार्थभाष्य में अंगबाह्य का आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त तथा कालिक एवं उत्कालिक के रूप में तो वर्गीकरण मिलता है, किन्तु उपांग, मूल, छेद आदि के रूप में नहीं मिलता है। अंगबाह्य आगमों की विस्तृत सूची भी नन्दी और तत्त्वार्थभाष्य में मिलती है, उससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि न केवल दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य के ग्रन्थों का लोप हुआ है, किन्तु अनेक अर्धमागधी अंगबाह्य ग्रन्थों का भी लोप हो चुका है। यद्यपि इस लोप का यह अर्थ भी नहीं है कि उनकी विषयवस्तु पूर्णतः नष्ट हो गई, अपितु इतना ही है कि उसकी विषयवस्तु अन्यत्र किसी ग्रन्थ में सुरक्षित हो जाने से उस ग्रन्थ का रूप समाप्त हो गया। आगमां की विषयवस्तु के सम्बन्ध में जिस अतिशयता की चर्चा परवर्ती आचार्यों ने की है, वह अतिरंजनापूर्ण है। उनकी विषयवस्तु के आकार के सम्बन्ध में आगमों और परवर्ती ग्रन्थों में जो सूचनाएँ हैं, वे उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न उपस्थित करती हैं। हमारी श्रद्धा और विश्वास चाहे कुछ भी हों, किन्तु तर्क, बुद्धि और गवेषणात्मक दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आगम साहित्य की विषयवस्तु में क्रमशः विकास ही होता रहा है। यह कहना कि आचारांग के आगे प्रत्येक अंग-ग्रन्थ की श्लोक संख्या एक दूसरे से क्रमशः द्विगुणित थी अथवा 14वें पूर्व की विषयवस्तु इतनी थी कि उसे चौदह हाथियों के बराबर स्याही से लिखा जा सकता था, विश्वास की वस्तु हो सकती है, बुद्धिगम्य नहीं । अन्त में, विद्वानों से मेरी यह अपेक्षा है कि वे आगमों और विशेष रूप से अर्धमागधी आगमों का अध्ययन श्वेताम्बर, दिगम्बर, मूर्त्तिपूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी दृष्टि से न करें, अपितु इन साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर करें, तभी हम उनके माध्यम से जैनधर्म के प्राचीन स्वरूप का यथादर्शन कर सकेंगे और प्रामाणिक रूप से यह भी समझ सकेंगे कि कालक्रम में उनमें कैसे और क्या परिवर्तन हुए हैं। आज आवश्यकता है पं. बेचरदासजी जैसे निष्पक्ष एवं तटस्थ बुद्धि से उनके अध्ययन की, अन्यथा दिगम्बरों को उसमें वस्त्रसम्बन्धी उल्लेख प्रक्षेप लगेंगे, तो श्वेताम्बर सारे वस्त्र - पात्र के उल्लेख महावीरकालीन मानने लगेंगे और दोनों ही यह नहीं समझ सकेंगे कि वस्त्र - पात्र का क्रमिक विकास किन परिस्थितियों में और कैसे हुआ है। यही स्थिति अन्य प्रकार के साम्प्रदायिक
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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