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हैं, अतः आगम ग्रन्थों की विषयवस्तु में कालक्रम में क्या परिवर्तन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर परम्परा के उपर्युक्त ग्रन्थों से प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौनसी सामग्री जुड़ी और अलग हुई है। आचाराङ्ग में आयारचूला और निशीथ के जुड़ने, पुनः निशीथ के अलग होने की घटना समवायांग और स्थानांग में समय-समय पर हुए प्रक्षेप, ज्ञाता के द्वितीय वर्ग में जुड़े अध्याय; प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन; अन्तकृत्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक परिवर्तन-इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें इनके समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। इसमें प्रश्नव्याकरण लगभग ईस्वी सन् की छठवीं शताब्दी में अस्तित्व में आया है। इस प्रकार, अर्धमागधी आगम साहित्य लगभग एक सहस्त्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्द्धित, परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है, इसकी सूचना भी स्वयं अर्धमागधी आगम साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है। अतः आगम विशेष या उसके अंशविशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में विषयवस्तु, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है । उदाहरण के रूप में, स्थानांग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है, जो कि वीर निर्वाण सं.584 तक अस्तित्व में आ चुके थे, किन्तु उसमें बोटिकों एवं उन परवर्ती गणों, कुलों और शाखाओं के उल्लेख नहीं हैं, जो वीर निर्वाण सं.609 अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अतः विषयवस्तु की दृष्टि से स्थानांग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा वीर निर्वाण सम्वत् 609 के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्द्ध या द्वितीय शताब्दी सिद्ध होता है। इसी प्रकार, आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा-शैली आचाराङ्ग के रचनाकाल को अर्धमागधी आगम साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध करती है। इस प्रकार, न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्ध की वाचना के समय अर्थात् ईसा की पांचवी शताब्दी में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अंग आगम गणधरों की रचना हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी आगम का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुड भी ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी से प्राचीन नहीं है । अतः, प्राकृत आगम साहित्य में अर्धमागधी आगम ही