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________________ उत्तरदायी होता है, अतः ऐसे पाठों का शुद्धिकरण अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक ही सूत्र में 'सुती' और 'सुई', 'नमो' और 'णमो', 'नियंठ' और 'निग्गंथ', 'कांत' और 'काय' - ऐसे दो शब्द रूप नहीं हो सकते। उनका पाठ संशोधन आवश्यक है। यद्यपि इसमें भी यह सावधानी आवश्यक है कि 'त' श्रुति की प्राचीनता के व्यामोह में कहीं सर्वत्र 'य' का 'त' नहीं कर दिया जावे, जैसे शुचि - सुई का 'सुती', निग्गंथ का 'नितंठ' अथवा कायं का 'कातं' पाठ महावीर विद्यालय वाले संस्करण में है। हम पारखजी से इस बात में सहमत हैं कि कोई भी पाठ आदर्श में उपलब्ध हुए बिना नहीं बदला जाय, किन्तु 'आदर्श' में उपलब्ध होने का यह अर्थ नहीं है कि 'सर्वत्र' और सभी 'आदर्शों' में उपलब्ध हो। हाँ, यदि आदर्शों या आदर्श के अंश में प्राचीन पाठ मात्र एक-दो स्थलों पर ही मिले और उनका प्रतिशत 20 से भी कम हो, तो वहाँ उन्हें प्रायः न बदला जाय, किन्तु यदि उनका प्रतिशत 20 से अधिक हो, तो उन्हें बदला जा सकता है -- शर्त यही हो कि आगम का वह अंश परवर्ती या प्रक्षिप्त न हो, जैसे- आचारांग का दूसरा श्रुतस्कन्ध या प्रश्नव्याकरण, किन्तु एक ही सूत्र में यदि इस प्रकार के भिन्न रूप आते हैं, तो एक स्थल पर भी प्राचीन रूप मिलने पर अन्यत्र उन्हें परिवर्तित किया जा सकता है। पाठ शुद्धिकरण में दूसरी सावधानी यह आवश्यक है कि आगमों में कहीं-कहीं प्रक्षिप्त अंश हैं अथवा संग्रहणियों और नियुक्तियों की अनेकों गाथाएं भी अवतरित की गयीं, ऐसे स्थलों पर पाठ-‍ -शुद्धिकरण करते समय प्राचीन रूपों की उपेक्षा करना होगा और आदर्श में उपलब्ध पाठ को परवर्ती होते हुए भी यथावत् रखना होगा। इस तथ्य को हम इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक अध्ययन, उद्देशक या एक पैराग्राफ में यदि 70 या 80 प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या 'य' श्रुति के हैं और मात्र 10 प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्धमागधी के हैं, तो वहां पाठ के महाराष्ट्री रूप को रखना ही उचित होगा। सम्भव है कि वह प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें 60 प्रतिशत प्राचीन रूप हैं और 40 प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप हैं, तो वहाँ प्राचीन रूप रखे जा सकते हैं। , पुनः आगम संपादन और पाठ शुद्धिकरण के इस उपक्रम में दिये जाने वाले मूलपाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में दिया जावे, किन्तु पाद-टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाये। इसका लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि कोई
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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