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________________ इस प्रकार, आप यहाँ देखेंगे कि एक ही सूत्र में 'सुती' और 'सुई-दोनों रूप उपस्थित हैं। इससे मात्र शब्द-रूप में ही भेद नहीं होता है, अर्थभेद भी हो सकता है, क्योंकि 'सुती' का अर्थ है- सूत से निर्मित, जबकि 'सुई' (शुचि) का अर्थ है -पवित्र। इस प्रकार, इसी सूत्र में ‘णाम' और 'नाम' – दोनों शब्दरूप एक ही साथ उपस्थित हैं। इसी स्थानांगसूत्र से एक अन्य उदाहरण लीजिए-सूत्र क्रमांक 445, पृ.197 पर 'निर्ग्रन्थ' शब्द के लिए प्राकृत शब्दरूप 'नियंठ' प्रयुक्त है, तो सूत्र 446 में 'निग्गंथ' और पाठान्तर में 'नितंठ' रूप भी दिया गया है। इसी ग्रन्थ में सूत्र संख्या 458, पृ.197 पर धम्मत्थिकातं, अधम्मत्थकातं और आगासत्थिकायं-- इस प्रकार 'काय' शब्द के दो भिन्न शब्दरूप काय और कातं दिये गये हैं। यद्यपि 'त' श्रुति प्राचीन अर्धमागधी की पहचान है, किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में सुती, नितंठ और कातं में जो 'त' का प्रयोग है, वह मुझे परवर्ती लगता है। लगता है कि 'य' श्रुति को 'त' श्रुति में बदलने के प्रयत्न भी कालान्तर में हुए और इस प्रयत्न में बिना अर्थ का विचार किये 'य' को 'त' कर दिया गया है। शुचि का सुती, निर्ग्रन्थ का नितंठ और काय का कातं किस प्राकृत व्याकरण के नियम से बनेगा, मेरी जानकारी में तो नहीं है। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक एक उदाहरण हमें हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित नियुक्तिसंग्रह में ओघनियुक्ति के प्रारम्भिक मंगल में मिलता है-- नमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं, एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि, पढ़मं हवई मंगलं।।1।। यहाँ हम देखते हैं कि जहाँ नमो अरिहंताणं से प्रारम्भ में 'न' रखा गया, जबकि णमो सिद्धाणं से लेकर शेष चार पदों में आदि का 'न', 'ण' कर दिया गया है, किन्तु 'एसो पंचनमुक्कारो' में पुनः 'न' उपस्थित है। हम आदरणीय पारिखजी से इस बात में सहमत हो सकते हैं कि भिन्न कालों में भिन्न व्यक्तियों से चर्चा करते हुए प्राकृत भाषा के भिन्न शब्द रूपों का प्रयोग हो सकता है, किन्तु ग्रन्थ निर्माण के समय और वह भी एक ही सूत्र या वाक्यांश में दो भिन्न रूपों का प्रयोग तो कभी भी नहीं होगा। पुनः, यदि हम यह मानते हैं कि आगम सर्वज्ञ वचन है, तो जब सामान्य व्यक्ति भी ऐसा नहीं करता है, फिर सर्वज्ञ कैसे करेगा? इस प्रकार की भिन्नरूपता के लिए लेखक नहीं, अपितु प्रतिलिपिकार ही
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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