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थे। ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ई. सन् की 5 वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति माना जाता रहा और इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी। फलतः, महावीर के पश्चात् लगभग 1000 वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत - परम्परा पर ही आधारित रहा। श्रुत-परम्परा के आधार पर आगमों के भाषिक स्वरूप को सुरक्षित रखना कठिन था, अतः उच्चारण शैली का भेद आगमों के भाषिक स्वरूप के परिवर्तन का कारण बन गया।
5. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो परिवर्तन देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र के होते थे, उन पर भी उस क्षेत्र की बोली / भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्दरूपों को लिख देते थे। उदाहरण के रूप में, चाहे मूल पाठ में 'गच्छति' लिखा हो, लेकिन प्रचलन में 'गच्छई' का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार 'गच्छई' रूप ही लिख देगा।
6. जैन आगम एवं आगमतुल्य ग्रन्थ में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों में एवं विभिन्न प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र के प्रचलित भाषायी स्वरूप के आधार पर उनमें परिवर्तन कर दिया। यही कारण है कि अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं संपादित हुए, तो उनका भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गए, तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उसमें अर्धमागधी के तत्त्व भी बने रहे।
सम्पादन और प्रतिलिपि करते समय भाषिक स्वरूप की एकरूपता पर विशेष बल नहीं दिए जाने के कारण जैन आगम एवं आगमतुल्य साहित्य अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री की खिचड़ी बन गया और विद्वानों ने उनकी भाषा को जैन - शौरसेनी और जैनमहाराष्ट्री-ऐसे नाम दे दिए। न प्राचीन संकलनकर्त्ताओं ने उस पर ध्यान दिया और न आधुनिक काल के सम्पादकों, प्रकाशनों में इस तथ्य पर ध्यान दिया गया। परिणामतः, एक ही आगम के एक ही विभाग में 'लोक', 'लोग', 'लोअ' और 'लोय' - ऐसे चारों ही रूप देखने को मिल जाते हैं।