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जो वेदमंत्रों के उच्चारण, लय आदि के प्रति अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किन्तु वे उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्दरूप में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत, जैन परम्परा में यह माना गया कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं, उनके वचनों को शब्दरूप तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। जैनाचार्यों के लिए कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाय, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिये, यही जैन आचार्यों का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्दरूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते गए।
2. आगम-साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए, उसका दूसरा कारण यह था कि जैनभिक्षु संघ में विभिन्न प्रदेशों के भिक्षुगण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती, फलतः आगम-साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएं आ गयीं।
3. जैनभिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव पड़ता ही है। फलतः, आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन या मिश्रण हो गया। उदाहरण के रूप में, जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही बोलियों का प्रभाव आ ही जाता है, अतः भाषिक स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो जाती
____4. सामान्यतया, बुद्धवचन बुद्ध निर्वाण के 200-300 वर्ष के अन्दर-ही-अन्दर लिखित रूप में आ गए, अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न रही और वह आज भी है। थाई, बर्मा और श्रीलंका के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके विपरीत, जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरु-शिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा। फलतः, देशकालगत उच्चारण भेद से उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया।
भारत में कागज का प्रचलन न होने से ग्रन्थ भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर लिखे जाते