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पाई। स्वयं संस्कृत भी दीर्घकाल तक एकरूप नहीं रह पाई। उसके भी आर्ष संस्कृत और परवर्ती साहित्यिक संस्कृत - ऐसे दो रूप मिलते ही हैं। वे सभी भाषाएं जो लोकबोलियों से विकसित होती हैं, सौ-दो सौ वर्षों तक भी एकरूप नहीं रह पाती हैं। वर्त्तमान हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के साहित्यिक रूपों में कैसा परिवर्तन हुआ ? यह हम सामान्य रूप से जानते ही हैं। अतः, अर्धमागधी भी चिरकाल तक एकरूप नहीं रह पायी । जैसे-जैसे जैन धर्म का विस्तार उत्तर-पश्चिमी भारत में हुआ, उस पर शौरसेनी एवं महाराष्ट्री के शब्द रूपों का प्रभाव आया तथा उच्चारण में शैलीगत कुछ परिवर्तन भी हुए। अर्धमागधी के साथ सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह रहा कि वह भगवान् महावीर के काल से वलभी की अंतिम वाचनाकाल (वीरनिर्वाण 980 वर्ष / 993 वर्ष) अर्थात् एक हजार वर्ष तक मौखिक रूप में ही प्रचलित रही। इसके कारण उसके स्वरूप में अनेक परिवर्तन आए और अन्ततोगत्वा वह शौरसेनी से गुजरकर महाराष्ट्री प्राकृत की गोदी में बैठ गई ।
विभिन्न प्राकृतों के सहसम्बन्ध को लेकर विगत कुछ वर्षों से यह भ्रान्त धारणा फैलाई जा रही है कि अमुक प्राकृत का जन्म अमुक प्राकृत से हुआ। वस्तुतः, प्रत्येक प्राकृत का जन्म अपनी अपनी क्षेत्रीय बोलियों से हुआ है। समीपवर्ती क्षेत्रों की बोलियों में सदैव आंशिक समानता और आंशिक असमानताएं स्वाभाविक रूप से होती हैं। यही कारण था कि अचेल परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में भी कुछ लक्षण अर्धमागधी के और कुछ लक्षण महाराष्ट्री प्राकृत के पाए जाते हैं, क्योंकि यह मध्यदेशीय भाषा रही है। उसका सम्बन्ध पूर्व और पश्चिम- दोनों से है, अतः उस पर दोनों की भाषाओं का प्रभाव आया है। प्राकृतें आपस में बहनें हैं - उनमें ऐसा नहीं है कि एक माता है और दूसरी पुत्री है। जिस प्रकार विभिन्न बहनें उम्र में छोटी बड़ी होती हैं, वैसे ही साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर उनमें कालक्रम हो सकता है, अतः हमें यह दुराग्रह छोड़ना होगा कि सभी प्राकृतें मागधी या शौरसेनी से उद्भूत हैं। प्राकृतें मूलतः क्षेत्रीय बोलियाँ हैं और उन्हीं क्षेत्रीय बोलियों को संस्कारित कर जब उनमें ग्रन्थ लिखे गए, तो वे भाषाएं बन गईं। अर्धमागधी के उद्भव और विकास की यही कहानी है।
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