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भासइ धम्मं परिकहेइ। -भगवई, लाडनूं, शतक 9, उद्देशक 33, सूत्र 163 6. सव्वसत्तसमदरिसीहिं अद्धमागहाए भासाए सुत्तं उवदिटुं। -आचारांगचूर्णि,
जिनदासमणि, पृ.255
न केवल श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगमों में, अपितु दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी ग्रन्थों में भी यह उल्लेख मिलते हैं कि भगवान् महावीर के उपदेश की भाषा अर्धमागधी ही थी। आचार्य कुन्दकुन्द की कृति के रूप में मान्य बोधपाहुड की 32वीं गाथा में तीर्थंकरों के अतिशयों की चर्चा है। उसकी टीका में श्री श्रुतसागरजी लिखते हैं कि-'सर्वार्धमागधीया भाषा भवति', अर्थात् उनकी सम्पूर्ण वाणी अर्धमागधी भाषा-रूप होती है। पूज्य जिनेन्द्रवर्णी जिनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भाग 2, पृष्ठ 431 पर भगवान् दिव्यध्वनि की चर्चा करते हुए दर्शन प्राभृत एवं चन्द्रप्रभचरित (18/1) के संदर्भ देकर लिखते हैं कि - 'तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधे मगधदेश की भाषारूप और आधी सर्वभाषारूप होती है।' आचार्य प्रभाचन्द्र नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखते हैं कि उस दिव्यध्वनि का विस्तार मागध जाति के देव करते हैं। अतः, अर्धमागधी देवकृत अतिशय है। आचार्यप्रवर श्री विद्यासागरजी के शिष्य श्री प्रमाणसागरजी अपनी पुस्तक जैनधर्म दर्शन (प्रथम संस्करण) पृ.50 पर लिखते हैं कि भगवान् महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ, आदि। इस प्रकार, जैन परम्परा समग्र रूप से यह स्वीकार करती है कि भगवान महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी थी। क्योंकि उनका विचरण क्षेत्र प्रमुखतया मगध और उसका समीपवर्ती क्षेत्र था, यही कारण था कि उनकी उपदेश की भाषा आसपास के क्षेत्रीय शब्दरूपों से युक्त मागधी अर्थात् अर्धमागधी थी। वक्ता उसी भाषा में बोलता है, जो उसकी मातृभाषा हो या श्रोता जिस भाषा को जानता हो। अतः भगवान् महावीर के उपदेशों की भाषा अर्धमागधी ही रही होगी।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि अर्धमागधी भाषा का उद्भव ई.पू. पांचवी-छठवीं शती में भगवान् महावीर के उपदेशों की भाषा के रूप में हुआ जो कालान्तर में अर्धमागधी आगम साहित्य की भाषा बन गई। जब हम अर्धमागधी भाषा के विकास की बात करते हैं, तो उस भाषा के स्वरूप में क्रमिक परिवर्तन कैसे हुआ और उसमें निर्मित साहित्य कौन सा है, यह जानना आवश्यक है। मेरी दृष्टि से यह एक निर्विवाद तथ्य है कि व्याकरण के नियमों से पूर्णतः जकड़ी हुई संस्कृत भाषा को छोड़कर कोई भी भाषा दीर्घकाल तक एकरूप नहीं रह