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दक्षिण भारत में, विशेष रूप से नासिक के शक उषवदात् (ऋषभदत्त) के अभिलेख में, 'न्' और 'ण' की आकृति पूर्ववत् अर्थात् (A) और (Z) के रूप में स्थिर रही है और इस लेखांश में 54 प्रतिशत 'न्' और 46 प्रतिशत 'ण' के प्रयोग हैं तथा 'ण' के पाँच रूप और 'न्' के तीन रूप पाये जाते हैं-यथा
'ण' ,x, x, x, x 'न्' ..
इस समग्र विवेचन से यह ज्ञात होता है कि ईस्वी पूर्व तीसरी शती से अर्थात् जब से अभिलिखित सामग्री प्राप्त होती है 'न्' और 'ण' के लिए ब्राह्मी लिपि में सदैव ही भिन्नभिन्न आकृतियाँ रही हैं, जिसका स्पष्ट निर्देश पं. गौरीशंकरजी ओझा ने अपने उपरोक्त लिपिपत्रों में किया है, अतः उनके नाम पर डॉ.सुदीपजी का यह कथन नितान्त मिथ्या है कि 'जब ब्राह्मी लिपि में न् और ण के लिए एक ही आकृति का प्रयोग होता था, तो उसे 'न्' पढ़ा ही क्यों जाए?' जब न् और ण के लिए प्रारम्भ से ही ब्राह्मी लिपि में अलगअलग आकृतियाँ निश्चित हैं, तो फिर 'न्' को न् और 'ण' को ण् ही पढ़ना होगा। पुनः, जहाँ पूर्व एवं उत्तर भारत के अशोक के अभिलेखों में प्रायः 'ण' का अभाव है, वहीं पश्चिमी भारत के उसके अभिलेखों में क्वचित् रूप से 'ण' के प्रयोग देखे जाते हैं, किन्तु इस विश्लेषण से एक नया तथ्य यह भी ज्ञात होता है कि मध्यप्रदेश एवं पश्चिम भारत में भी 'ण' के प्रयोग में कालक्रम में भी अभिवृद्धि हुई है। जहाँ उत्तर पूर्व एवं मध्यभारत के ई.पू. तीसरी शती के अशोक के अभिलेखों में 'ण' का प्रायः अभाव है, वहीं पश्चिमी भारत के उसके अभिलेखों में 'ण' का प्रयोग 10 प्रतिशत से कम है। उसके पश्चात् ई.पू. प्रथम शती के मथुरा और पभोसा के अभिलेखों में 'ण' का प्रयोग 25 प्रतिशत से 30 प्रतिशत मिलता है, किन्तु इसके लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् पश्चिम-दक्षिण में नासिक के अभिलेख में यह बढ़कर 50 प्रतिशत हो जाता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि 'ण'कार प्रधान शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृतें 'न्' कार प्रधान मागधी या अर्धमागधी की अपेक्षा परवर्ती काल में विकसित हुई हैं। अतः, मागधी या अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी की प्राचीनता का तथा ब्राह्मी अभिलेखों में न् और ण के लिए एक आकृति के प्रयोग का पं. ओझाजी के नाम से प्रचारित डॉ.सुदीपजी का दावा भ्रामक है। .
भारतीय प्राचीन लिपिमाला में पं. ओझाजी द्वारा ही प्रस्तुत उक्त तथ्य उनके इस