SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दन्त्य न और मूर्द्धन्य ण की आकृतियाँ किस प्रकार बनती हैं यथा - "नि' (1) 'नु' (1) 'नो' (1) । इसके विपरीत, मूर्द्धन्य ‘ण्' पर 'ए' की मात्रा लगने पर जो आकृति बनती है, वह बिल्कुल भिन्न है यथा 'णे' (३) । इससे यह सिद्ध होता है कि अशोकं के काल में ब्राह्मी लिपि में 'न्' और 'ण' की आकृति एक नहीं थी। ज्ञातव्य है कि अशोक के अभिलेखों में जहां गिरनार के अभिलेख में न (1) और ण (1) दोनों विकल्प से उत्कीर्ण मिलते हैं, वहां उत्तर-पूर्व के अभिलेखों में प्रायः न् (.) ही मिलता है। यह तथ्य पं. ओझाजी के लिपिपत्र दो से सिद्ध होता है। लिपिपत्र तीन, जो रामगढ़, नागार्जुनी गुफा, भरहुत और सांची के स्तूप लेखों पर आधारित है, उसमें भी 'न्' और 'ण' दोनों की अलग-अलग आकृतियाँ हैं- उसमें न के लिए (I) और ण के लिए (५) आकृतियाँ हैं। ई.पू. दूसरी शताब्दी से जब अक्षरों पर सिरे बाँधना प्रारम्भ हुए तो न् और ण् की आकृति समरूप न हो जाए, इससे बचने हेतु 'ण' की आकृति में थोड़ा परिवर्तन किया गया और उसे किञ्चित् भिन्न प्रकार से लिखा जाने लगा न । नि + नो । ण : णी + णो + इसी प्रकार, लिपिपत्र चौथे से भी यही सिद्ध होता है कि ई.पू. में ब्राह्मी अभिलेखों में 'न्' और 'ण' की आकृतियाँ भिन्न थीं। लिपिपत्र पाँच जो पभोसा और मथुरा के ई.पू. प्रथम शती के अभिलेखों पर आधारित है, उसमें जो लेख पं. ओझाजी ने उद्धृत किया है, उसमें भी 'न्' और 'ण' की आकृतियाँ भिन्न भिन्न ही हैं। साथ ही उसमें 'ण' का प्रयोग विरल है। उस लेखांश में जहाँ पाँच बार 'न्' का प्रयोग है वहाँ 'ण' का प्रयोग मात्र दो बार ही है, अर्थात् 70 प्रतिशत न् है और 30 प्रतिशत ण् है। इसका तात्पर्य यह है कि वह मथुरा, जिसे शौरसेनी का उत्पत्ति स्थल माना जाता है और जहाँ की भाषा पर 'णो नःसर्वत्र' का सिद्धान्त लागू किया जाता है, वहाँ भी ई.पू. प्रथम शती में जब यह स्थिति है, तो उस तथाकथित शौरसेनी की प्राचीनता का दावा कितना आधारहीन है, यह स्वतः सिद्ध हो जाता है। मथुरा के अभिलेखों में ईसा की प्रथम-दूसरी शती तक भी ‘णो नः सर्वत्र' और मध्यवर्ती 'त्' के 'द्' होने का दावा करने वाली उस तथाकथित शौरसेनी का कहीं अता पता ही नहीं है। ई. सन् की प्रथम-दूसरी शती के लिपिपत्र सात के अवलोकन से ज्ञात होता है कि
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy