________________
प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः, सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल हैसव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुःखपडिकूला (1/2/3), अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन-विचारकों ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। यद्यपि मैकेंजी ने अपने लेखन में अहिंसा का आधार ‘भय' को माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि यदि भय के सिद्धान्त को अहिंसा का आधार बनाया जाएगा, तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार मानने पर तो जिससे भय होगा, उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि आचारांग तो सभी प्राणियों के प्रति, यहां तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है, अतः आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपितु जिजीविषा और सूखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर अधिष्ठित किया गया है। पुनः, इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ ही उसमें अहिंसा को तुल्यता-बोध का बौद्धिक आधार भी दिया गया है। वहां कहा गया है कि 'जो अज्झत्थं जाणई से बहिया जाणई एवं तुल्लमन्नसिं,(1/1/7), जो अपनी पीड़ा को जान पाता है, वही तुल्यता-बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता के बोध के आधार पर होने वाला आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास में यहां तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना चाहता है, वह तू ही है (आचारांग -1/5/5)।' आगे वह कहता है कि जो लोक का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग-1/1/3)। अहिंसा को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन के आत्मा संबंधी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता प्रतीत होता है, क्योंकि वहां वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असंभव हो सकती है। जब तक दूसरे के प्रति ‘पर बुद्धि' है, पराएपन का भाव है, तब तक हिंसा की संभावनाएँ उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असंभव हो सकती है, जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व, आत्मीय दृष्टि जाग्रत हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित थी, उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण में