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जैन परम्परा में अहिंसा का अर्थ-विस्तार
सम्भवतः, विश्व साहित्य में उपलब्ध प्राचीनतम जैन ग्रंथ आचारांग ही ऐसा है, जिसमें अहिंसा को सर्वाधिक अर्थविस्तार दिया गया है। उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस प्राणी के रूप में षट्जीव निकाय की हिंसा का निषेध किया गया है। उसके प्रथम अध्याय का नाम ही शस्त्र-परिज्ञा है, जो अपने नाम के अनुरूप ही हिंसा के कारण और साधनों का विवेक कराता है। हिंसा-अहिंसा के विवेक के संबंध में षट्जीव निकाय की अवधारणा आचारांग की अपनी विशेषता है, जो कि परवर्ती सम्पूर्ण जैन साहित्य में स्वीकृत रही है। आचारांग में न केवल अहिंसा की अवधारणा को अर्थ विस्तार दिया गया है, अपितु उसे अधिक गहन और मनोवैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न भी किया गया
आचारांग में धर्म की दो प्रमुख व्याख्याएं उपलब्ध हैं। प्रथम व्याख्या है - सोमियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए (1/8/3), आर्यजनों ने समता (समभाव) को धर्म कहा है। धर्म की दूसरी व्याख्या है- सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा। एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए, समिच लोयं खेयन्नेहिं पवेइए (1/41), किसी भी प्राणी, जीव और सत्त्व की हिंसा नहीं करना- यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश समस्त लोक की पीड़ा को जानकर दिया गया है। वस्तुतः, धर्म की ये दो व्याख्याएं दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित हैं। 'समभाव' के रूप में धर्म की परिभाषा समाज निरपेक्ष वैयक्तिक धर्म की परिभाषा है, क्योंकि समभाव सैद्धान्तिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हमारे स्व-स्वभाव का परिचायक है, जबकि अहिंसा एक व्यावहारिक एवं समाज सापेक्ष धर्म है, क्योंकि वह लोक की पीड़ा के निवारण के लिए है। अहिंसा समभाव की साधना की बाह्य अभिव्यक्ति है। समभाव अहिंसा का सारतत्त्व है और अहिंसा की आधार भूमि है।
अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ___ आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर भी स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वहां अहिंसा को आर्हत् प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें यह विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जाए? सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है, वह कहता है कि सभी