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________________ - प्रतिष्ठित भी होता है। ___ आज सेवा की अपेक्षा सेवा का प्रदर्शन अधिक महत्त्वपूर्ण बनता जा रहा है। मैं पश्चिम के लायन्स और रोटरी क्लबों की बात नहीं करता, किन्तु आज के जैन समाज के विकसित होने वाले सोशल ग्रुप की बात करना चाहता हूँ। हम अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछे कि क्या वहाँ सेवा के स्थान पर सेवा का प्रदर्शन अधिक नहीं हो रहा है? मेरे इस आक्षेप का यह आशय नहीं कि सोशल ग्रुप जैसी संस्थाओं का मैं आलोचक हूँ, वास्तविकता तो यह है कि यदि आज समाज, संस्कृति और धर्म को बचाए रखना है, तो ऐसी संस्थाओं की नितान्त आवश्यकता है। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि आज एक मंदिर, उपाश्रय या स्थानक कम बने और उसके स्थान पर गाँव-गाँव में जैनों के सोशल क्लब खड़े हों, किन्तु उनमें कहीं हमारे धर्म, दर्शन और संस्कृति का संरक्षण होना चाहिए, आचार की मर्यादाओं का पालन होना चाहिए। आज के युवा में जैन संस्कारों के बीजों का वपन हो और वे विकसित हों, इसलिए ऐसे सामाजिक संगठन आवश्यक हैं, किन्तु यदि उनमें पश्चिम की अंधी नकल से हमारे सांस्कृतिक मूल्य और सांस्कृतिक विरासत समाप्त होते हैं, तो उनकी उपादेयता भी समाप्त हो जाएगी। आज के युग में संचार के साधनों की वृद्धि हुई है और यह भी आवश्यक है कि हमें इन संचार साधनों का उपयोग भी करना चाहिए, किन्तु इनके उपयोग से जीवन मूल्यों और आदर्शों का प्रसारण होना चाहिए, न कि वैयक्तिक अहम् का पोषण। आज हमारी रुचि उन आदर्शों और मूल्यों की स्थापना में उतनी नहीं होती, जितनी अपने अहम् के सम्पोषण के लिए अपना नाम व फोटो छपा हुआ देखने में होती है। इस युग में साधनाप्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गए हैं। यदि उनका जीवन और चारित्रिक मूल्य आगे आए, तो उनसे हमारे जीवन मूल्यों का संरक्षण होगा, अन्यथा केवल प्रदर्शन और अपने अहम् की पुष्टि में हमारी अस्मिता ही समाप्त हो जाएगी। आज न केवल नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स लग रहे हैं, अपितु हमारे साधुओं के भी होर्डिंग्स लग गए हैं। संचार साधनों की सुविधाओं के इस युग में महत्त्व मूल्य और आदर्शों को दिया जाना चाहिए, न कि व्यक्तियों को, क्योंकि उसके निमित्त से आज साधु समाज में एक प्रतिस्पर्धा की भावना भी जन्मी है और उसके परिणामस्वरूप संघ और समाज के धन का कितना अपव्यय हो रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह धन भी साधुवर्ग के पास से नहीं, गृहस्थ वर्ग के पास से ही आता है। आज पूजा, प्रतिष्ठा, दीक्षा, चातुर्मास, आराधना और उपासना की खर्चीली व्यवस्थाएँ बन्द होना चाहिए। ***
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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