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4. परिणामी आत्मवाद, आत्म कर्तृत्ववाद, पुरुषार्थवाद, 5. सूक्ष्म आत्मवाद, 6. विभु आत्मवाद, 7. अनात्मवाद, 8. सर्वआत्मवाद या ब्रह्मवाद.
प्रस्तुत निबंध में उपर्युक्त सभी आत्मवादों का विवेचन सम्भव नहीं है, दूसरे अनात्मवाद और सर्व आत्मवाद के सिद्धान्त क्रमशः बौद्ध और वेदांत परम्परा में विकसित हुए हैं, जो काफी विस्तृत हैं, साथ ही लोकप्रसिद्ध हैं, अतः उनका विवेचन प्रस्तुत निबंध में नहीं किया गया है। परिणामी आत्मवाद का सिद्धान्त स्वतंत्र रूप से किसका था, यह ज्ञात नहीं हो सका, अतः उसका भी विवेचन नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रयास में इन विभिन्न आत्मवादों के वर्गीकरण में मुख्यतः एक स्थूल दृष्टि रखी गई है और इसी हेतु कूटस्थ आत्मवाद, नियतिवाद या परिणामी आत्मवाद और पुरुषार्थवाद महावीर के आत्मवाद का मुख्य अंग माने गए हैं, फिर भी महावीर का आत्मदर्शन समन्वयात्मक है, अतः उनके आत्मदर्शन को एकांत रूप से उस वर्ग में नहीं रखा जा सकता है।
अनित्य आत्मवाद
महावीर के समकालीन विचारकों में इस अनित्यात्मवाद का प्रतिनिधित्व अजितकेशकम्बल करते हैं। इस धारणा के अनुसार, आत्मा या चैतन्य इस शरीर के साथ उत्पन्न होता है और इसके नष्ट हो जाने के साथ ही नष्ट हो जाता है। उनके दर्शन एवं नैतिक सिद्धान्तों को बौद्ध आगम में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
दान, यज्ञ, हवन व्यर्थ हैं। सुकृत-दुष्कृत कर्मों का फल-विपाक नहीं। यह लोकपरलोक नहीं। माता-पिता नहीं, देवता नही... आदमी पंच महाभूतों से बना है, जब मरता है, तब (शरीर की) पृथ्वी-पृथ्वी में, पानी-पानी में, आग-आग में, वायु-वायु में और आकाश-आकाश में मिल जाता है... दान, यह मूरों का उपदेश है... मूर्ख हो चाहे पंडित, शरीर छोड़ने पर उच्छिन्न हो जाते हैं...।
बाह्य रूप से देखने पर अजित की यह धारणा स्वार्थ सुखवाद की नैतिक धारणा के समान प्रतीत होती है और उसका दर्शन या आत्मवाद भौतिकवादी परिलक्षित होता है,