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________________ हैं कि साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी इनकी ओर आकृष्ट नहीं हो सकता। अतः, यहाँ स्वाभाविक रूप से शंका उपस्थित होती है कि क्या ऐसी निन्द्य नैतिकता का उपदेश देने वाला व्यक्ति लोकसम्मानित धर्माचार्य हो सकता है, लोकपूजित हो सकता है? यही नहीं कि ये आचार्यगण लोकपूजित ही थे, वरन् वे आध्यात्मिक विकास के निमित्त विभिन्न साधनाएं भी करते थे। उनके शिष्य एवं उपासक भी थे। उपरोक्त तथ्य किसी निष्पक्ष गहन विचारणा की अपेक्षा करते हैं, जो इसके पीछे रहे हुए सत्य का उद्घाटन कर सके। मेरी विनम्र सम्मति में उपर्युक्त विचारकों की नैतिक विचारणा को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह उन विचारकों की नैतिक विचारणा नहीं है, वरन् उनके आत्मवाद या अन्य दार्शनिक मान्यताओं के आधार पर निकाला हुआ नैतिक निष्कर्ष है, जो विरोधी पक्ष द्वारा प्रस्तुत किया गया है। जैनागमों, जैसे-सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवतीसूत्र), उत्तराध्ययन आदि में भी कुछ ऐसे स्थल हैं, जिनके आधार पर तत्कालीन आत्मवादों को प्रस्तुत किया जा सकता है। वैदिक साहित्य में प्राचीनतम उपनिषद् छान्दोग्य और बृहदारण्यक हैं, उनमें भी तत्कालीन आत्मवाद के संबंध में कुछ जानकारी उपलब्ध होती है। कठोपनिषद् एवं गीता में इन विभिन्न आत्मवादी धारणाओं का प्रभाव यत्र-तत्र यथेष्ट रूप से देखने को मिल सकता है। लेख के विस्तारभय से यहां उक्त सभी ग्रंथों के विभिन्न संकेतों के आधार पर उनके प्रतिफलित होने वाले आत्मवादों की विचारणा सम्भव नहीं है, अतः हम यहां कुछ आत्मवादों का वर्गीकृत रूप में मात्र संक्षिप्त अध्ययन ही करेंगे। इनका विस्तृत और पूर्ण अध्ययन तो स्वतंत्र गवेषणा का विषय है। इस दृष्टि से हमारे अध्ययन में निम्न वर्गीकरण सहायक हो सकता है1. नित्य या शाश्वत आत्मवाद, 2. अनित्य आत्मवाद, उच्छेद आत्मवाद, देहात्मवाद, 3. कूटस्थ आत्मवाद, अक्रिय आत्मवाद, नियतिवाद,
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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