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वैचारिक सहिष्णुता का आधार : अनाग्रह (अनेकांत-दृष्टि)
जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के काल में वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यक्दृष्टि और दूसरे को मिथ्यादृष्टि कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी वैचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर एक दूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है। धार्मिक या राजनीतिक साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। प्रत्येक धर्मवाद या राजनीतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और दूसरे को भ्रांत बता रहा है।इस धार्मिक एवं राजनीतिक उन्माद एवं असहिष्णुता के कारण मानव मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनीतिक पार्टियां या धार्मिक सम्प्रदाय उसके आंतरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक संबंधों को तनावपूर्ण बनाए हुए हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने को किसी एक निष्ठा से संबंधित कर गुट बना रहे हैं और इस प्रकार विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध बना रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं, यह वैचारिक असहिष्णुता सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के कारण आज समाज और परिवार का वातावरण भी अशांत और कलहपूर्ण हो रहा है। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो लोगों को आग्रह और मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशानिर्देश दे सके। भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया था। वर्तमान में भी धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में जो वैचारिक संघर्ष और तनाव उपस्थित हैं, उनका सम्यक् समाधान इन्हीं महापुरुषों की विचारसरणी द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार करना होगा कि बुद्ध और महावीर की अनाग्रह दृष्टि द्वारा किस प्रकार धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक सहिष्णुता को विकसित किया जा सकता है।