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________________ कि वह किसी का दास और सेवक नहीं है । उपास्य व उपासक का द्वैत झूठा है। महावीर ने कहा- 'हे मनुष्य! तू स्वयं परमात्मा है, तू स्वयं ही अपना नियन्ता और शासक है। न तो तेरा कोई भाग्यविधाता है और न कोई किसी का दास या सेवक ही है।' महावीर ने उस युग में जो कुछ कहा था, उसे एक उर्दू शायर के निम्नलिखित शब्दों में सुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया जा सकता है इंसा की बदबख्ती अंदाज के बाहर है। कम्बख्त खुदा होकर बंदा नजर आता है।। महावीर ने मनुष्य को जो अहसास कराया, वह था -- उसमें परमात्त्व तत्त्व का अहसास प्रसुप्त होना, अर्थात् जीवन में प्रसुप्त जिन का बोध | महावीर का उद्घोष था'अप्पा सो परमप्पा ।' महावीर ने मनुष्य को जो सिखलाया, उसका सार था कि अपनी सत्ता का अहसास करो, अपने को पहचानो, ऐसा कुछ भी नहीं है, जो तुम्हें कोई दूसरा दे सकेगा। तुम स्वयं सम्राट होकर भिखारी क्यों बने हुए हो। अपनी अनन्त और असीम सत्ता का अनुभव करो। तुम्हारा यह भिखारीपन, तुम्हारी यह बन्दगी, सब कुछ तुम्हें अनावश्यक प्रतीत होगी। विश्व के विविध धर्मों में जैनधर्म की यदि कोई विशिष्टता खोजी जा सकती है, तो वह यह कि उसने मनुष्य को अपनी खोई हुई गरिमा वापस दिलाई, उसने मनुष्य को सेवक नहीं, स्वामी बनाया, शासित नहीं, शासक बनाया। - महावीर की जीवनदृष्टि का एक दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है मानव समाज की समता। महावीर का युग वह युग था, जब मनुष्य, मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींच दी गई थीं। कुछ लोगों को शूद्र और अछूत कहकर समाज में ठुकराया गया था। महावीर ने इन बातों को अनुचित बताया और कहा कि श्रेष्ठता और कनिष्ठता का आधार किसी जाति, वर्ण या कुल में जन्म लेना नहीं, अपितु व्यक्ति का अपना नैतिक और आध्यात्मिक विकास है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि व्यक्ति जन्म से न तो ब्राह्मण होता है, न क्षत्रिय होता है, न वैश्य या शूद्र । यह तो व्यक्ति का आचरण है, जो उसे इन वर्गों में बाँट देता है। यदि व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करे और अपनी वासनाओं, आवेगों से स्वयं को मुक्त रख सके, तो वह चाहे किसी भी कुल में क्यों न जन्मा हो, सभी के लिए श्रेष्ठ बन जाता है।
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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