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________________ इतनी अपूर्ण है कि वह सम्पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती। साधारण मानव-बुद्धि पूर्ण सत्य को एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती, अतः साधारण मानव पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं कर पाता है। जैन दृष्टि के अनुसार सत्य अज्ञेय तो नहीं है, किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त किए उसे पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि 'हम केवल सापेक्षिक सत्य को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को तो कोई पूर्ण दृष्टा ही जान सकेगा। और ऐसी स्थिति में जबकि हमारा समस्त ज्ञान आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक है, हमें यह दावा करने का कोई अधिकार नहीं है कि मेरी दृष्टि ही एकमात्र सत्य है और सत्य मेरे पास ही है। हमारा आंशिक, अपूर्ण और सापेक्षिक ज्ञान निरपेक्ष सत्यता का दावा नहीं कर सकता, अतः ऐसे ज्ञान के लिए हमें ऐसी कथन पद्धति की योजना करनी होगी, जो कि दूसरों के अनुभूत सत्यों का निषेध नहीं करते हुए अपनी बात कह सके। हम अपने ज्ञान की सीमितता के कारण अन्य सम्भावनाओं (possibilities) को निरस्त नहीं कर सकते हैं। क्या सर्वज्ञ का ज्ञान निरपेक्ष होता है? यद्यपि जैन दर्शन में यह माना गया है कि सर्वज्ञ या केवली सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या सर्व का ज्ञान निरपेक्ष है? इस संदर्भ में जैन दार्शनिकों में भी मतभेद पाया जाता है। कुछ समकालीन जैन विचारक सर्वज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष मानते हैं, जबकि दूसरे कुछ विचारकों के अनुसार सर्वज्ञ का ज्ञान भी सापेक्ष होता है। श्री दलसुखभाई मालवणिया ने 'स्याद्वाद मंजरी' की भूमिका में सवज्ञ के ज्ञान को निरपेक्ष सत्य बताया है, जबकि मुनि श्री नागराजजी ने 'जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान' नामक पस्तिका में यह माना है कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी कहने भर को ही निरपेक्ष है, क्योंकि स्यादस्ति स्यान्नास्ति से परे वह भी नहीं है, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जहां तक सर्वज्ञ के वस्तु जगत् के ज्ञान का प्रश्न है उसे निरपेक्ष नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके ज्ञान का विषय अनंतधर्मात्मक वस्तु है। अतः, सर्वज्ञ भी वस्तुतत्त्व के अनन्त गुणों को अनन्त अपेक्षाओं से ही जान सकता है। वस्तुगत ज्ञान या वैषयिक ज्ञान (objective knowledge) कभी भी निरपेक्ष नहीं हो सकता, फिर चाहे वह सर्वज्ञ का ही क्यों न हो? इसीलिए जैन-आचार्यों का कथन है कि दीप से लेकर व्योम तक वस्तु मात्र स्यावाद की मुद्रा से अंकित है, किन्तु हमें यह ध्यान
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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