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________________ यदि हम उस कोण या स्थिति के विचार को अपने ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान भ्रांत हो जाएगा। उदाहरणार्थ-एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से हमें वृत्ताकार न लगकर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों एवं विभिन्न शारीरिक स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से ऊपर जाकर देखते हैं, तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु पृथ्वी तल पर हमें स्थिर प्रतीत होती है। दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास में देखने से बड़ी दिखाई देती है। एक टेबल के जब विविध कोणों के फोटो लिए जाते हैं, तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार, हमारा सारा आनुभाविक ज्ञान सापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं। इंद्रिय संवेदनाओं को उन सब अपेक्षाओं (conditions) से अलग हटकर नहीं समझा जा सकता है, जिसमें कि वे हुए हैं। अतः ऐन्द्रिकज्ञान दिक्, काल और व्यक्ति सापेक्ष है। किन्तु, मानव मन कभी भी इंद्रियानुभूति या प्रतीति के ज्ञान को ही अंतिम सत्य मानकर संतुष्ट नहीं होता। वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है, किन्तु क्या तार्किक ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है? प्रथम तो तार्किक ज्ञान भी पूरी तरह से इंद्रिय संवेदनों से निरपेक्ष नहीं होता है, दूसरे, तार्किक ज्ञान वस्तुतः एक संबंधात्मक ज्ञान है। बौद्धिक चिंतन कारण और कार्य, एकअनेक, अस्ति-नास्ति आदि विचारधाराओं से घिरा हुआ है और अपनी इन विचार विधाओं के आधार पर वह सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं। तर्कबुद्धि जब भी किसी वस्तु के स्वरूप का निश्चय कर कोई निर्णय प्रस्तुत करती है, तो वह हमें दो तथ्यों के बीच किसी संबंध या असंबंध की ही सूचना प्रदान करती है और ऐसा संबंधात्मक ज्ञान, संबंध सापेक्ष ही होगा, निरपेक्ष नहीं, क्योंकि सभी संबंध (Relation) सापेक्ष होते हैं। (स) मानवीय ज्ञान की सीमितता एवं सापेक्षता - वस्तुतः, वस्तुतत्त्व का यथार्थ एवं पूर्ण ज्ञान सीमित क्षमता वाले मानव के लिए सदैव ही एक जटिल प्रश्न रहा है। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाए हैं और जब इस आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तो वह सत्य, सत्य न रहकर असत्य बन जाता है। वस्तुतत्त्व केवल उतना ही नहीं है जितना कि हम उसे जान पा रहे हैं। मनुष्य की ऐन्द्रिक ज्ञान क्षमता एवं तर्कबुद्धि
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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