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जगजयवंत जीरावला
जीरावला तीर्थ की महिमा गाते कुछ वृत्तांत
(छ' रि पालीत यात्रा संघ उल्लेख व प्राचीन प्रबंध)
जैन शास्त्रों में तीर्थ यात्रा की काफी महिमा बताई है। छ 'रि पालक यात्रा संघ जैन धर्म का गौरव बढ़ाने वाले व शासन प्रभावना करने वाले साबित हुए हैं। इसी यात्रा संघ की श्रेणी में जीरावला तीर्थ के संघों के कुछ वर्णन प्राप्त हो रहे हैं.
सामूहिक तीर्थ यात्रा का आयोजन करने वाले भाविक को हम संघपति कहते हैं। इन संघों के साथ बड़े-बड़े आचार्य शिष्य समुदाय के साथ विहार करते थे । जैन साधु तो चातुर्मास छोड़कर शेष आठ मास विहार करते ही रहते हैं। इन विहारों में वे मार्ग में आने वाले तीर्थों के दर्शन करते ही हैं। इस तीर्थ पर आए बहुत थोड़े संघों एवं आचार्यों का पता हमें लग सका है।
वि. सं. 331 के आसपास जैनाचार्य देवसूरिजी महाराज अपने सौ शिष्यों सहित यहाँ विहार करते हुए आये थे एवं इन्हीं ने अमरासा द्वारा निर्मित इस मंदिर की वि. सं. 331 वैशाख सुदी 10 को शुभ मुहुर्त में प्रतिष्ठा करवाई।
वि. की चौथी सदी में (लगभग 395वि. सं.) जैनाचार्य श्री मेरूसूरिश्वरजी महाराज एक विशाल संघ को लेकर इस तीर्थ में पधारे थे।
संवत् 834 के आसपास जैनाचार्य श्री उद्योतनसूरिजी ने 17 हजार आदमियों के संघ के साथ इस तीर्थ की यात्रा की थी। इस संघ के संघपति वडली नगर निवासी लखमण सा हुए। ये उद्योतनसूरि तत्त्वार्चा के शिष्य थे। इन्होंने वि. सं. 835 में जालोर में कुवलयमाला नाम की एक प्राकृत कथा की रचना की थी ।
वि. सं. 1033 में तेतली नगर निवासी सेठ हरदासजी ने एक बड़ा संघ निकाला था। इस संघ के साथ जैनाचार्य श्री सहजानन्दसूरीश्वरजी महाराज थे।
वि. सं. 1180 में जैनाचार्य श्रीमानदेवसूरिजी की अध्यक्षता में जाल्हा श्रेष्ठी ने एक बहुत बड़े संघ के साथ इस तीर्थ की यात्रा की।
वि. सं. 1393 में प्राग्वाट वंशीय मीला श्रेष्ठी ने राहेड नगर से एक बड़ा संघ निकाला जिसमें जैनाचार्य श्री कक्कसूरिजी सम्मिलित हुए। इन कक्कसूरिजी ने वि. सं. 1378 में आबू के विमलवसही मंदिर में आदिनाथ के बिम्ब की प्रतिष्ठा की थी। इन्होंने बालोतरा, खम्भात, पेथापुर, पाटण एवं पालनपुर के जैन मंदिरों की प्रतिष्ठा करवाई थी।
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