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जगजयवंत जीवरावला सोनगरा जांजणजी सेठ के छः पुत्रों के साथ सिंघवी आल्हराज ने इस तीर्थ में ऊंचे तोरणों सहित एक सुन्दर मंडप बनवाया।
जीरापल्ली महातीर्थे, मण्डपंतु चकार सः। उत्तोरणं महास्तभं, वितानांशुक भूषणम्।।
वर्तमान मंदिर के पीछे की टेकरी पर एक प्राचीन किले के अवशेष दिखाई देते हैं जो शायद कान्हडदेव चौहान के सामंतों का रहा होगा। सन् 1314 में कान्हडदेव चौहान मारे गये, उनके बाद मण्डार से लेकर जालोर तक का इलाका अलाउद्दीन खिलजी के वशवर्ती रहा। न मालूम कितने अत्याचार इस मंदिर पर और जीरापल्ली नगर पर हुए होंगे उसके साक्षी तो यह जयराज पर्वत और भगवान पार्श्वनाथ हैं।
सन् 1320 के बाद सिरोही के महाराव लुम्भा का इस इलाके पर अधिकार हो गया परंतु अजमेर से अहमदाबाद जाने का यह रास्ता होने के कारण समय समय पर मंदिर व नगरी पर विपत्तियाँ आती रही। यहाँ से सेठ लोग नगरी को छोड़ चले गये एवं चौहानों ने भी इस स्थान को असुरक्षित समझ कर छोड़ दिया। ___ वि. सं. 1851 के शिलालेख के अनुसार इस मंदिर में मूलनायक रूप में पार्श्वनाथ विराजमान थे। पर इसके बाद किसी कारणवश भगवान नेमिनाथ को मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया था। इस घटना का उल्लेख किसी भी शिलालेख से ज्ञात नहीं होता। मंदिर के बांई ओर की एक कोठड़ी में अब भी पार्श्वनाथ की दो मूर्तियाँ विराजमान हैं एवं दूसरी कोठड़ी में भगवान नेमिनाथ।
ऐसी मान्यता है कि महान चमत्कारी भगवान पार्श्वनाथ की अमूल्य प्रतिमा कहीं आक्रमणकारियों के द्वारा खंडित कर दी जाय इस भय से पार्श्वनाथजी की मूर्ति को गप्त भण्डार में विराजमान कर दिया गया हो और तब तक की अन्तरिम व्यवस्था के लिए ज्योतिष के फलादेश के अनुसार नेमिनाथ भगवान की मूर्ति को प्रतिष्ठित कर दिया गया हो। - समय समय पर जीर्णोद्धार होने के कारण एवं ऐतिहासिक शोध खोज की दृष्टि न होने के कारण मंदिर की मरम्मत करने वाले कारीगरों की छैनी और हथोड़े से मंदिर के पाटों और दीवारों पर के शिलालेख बहुरत्ना वसुन्धरा के गहन गर्त में समा गये हैं। शायद वे किसी समय की प्रतीक्षा में होंगे जब किसी महान आचार्य के आशीर्वाद से प्रकट होंगे, तब इस मंदिर की अकथ कहानी प्रकट होगी।
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