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प्राकृतस्तोत्रप्रकाशः
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- ॥ श्री सम्यग्ज्ञानपदस्तोत्रम् ॥
॥ आर्यावृत्तम् ॥ वंदिय सम्भत्तपयं-उवयारगणेमिमूरिगुरुमंतं ॥ सम्मण्णाणत्थवणं-विहेमि विविहाणुओगमयं ॥ १॥ मणवयणकायतावं-जं सामइ दिण्णभावसिरिपयरं ॥ सण्णाणसंजमाणं-दभरियमहिलत्थतत्तदयं ॥ २ ॥ परमप्पहावकलियं-अवीयतिहुयणविलद्धविजयधयं ॥ सव्वव्यावगवज्ज-दरिसणसत्थेसु पसमदयं ॥३॥ उइयं नाय दाउं-सेसाहिलदसणाण जं सक्कं ॥ तमणेगंतरिसणं-जयइ सियावायणिपक्खं ॥ ४ ॥ तम्मि परमपयलाहो-वुत्तो जगएहिं नाणकिरियाहि ॥ संखित्तवयणमेयं-वित्थडवाओ य तत्तत्थे ॥५॥ वाई पुच्छइ कम्हा-नाणस्साइग्गहणमत्व किरियाए ॥ इह पण्हुत्तरमेयं-विष्णेयं पुज्जगुरुभणियं ॥ ६ ॥ नाणेग सया होज्जा-किरियाराहणमदोससाहल्लं ॥ एतो नागस्साइ-ग्गहणं विहियं पवयणम्मि ॥ ७ ॥ जह तिहलाइ करेंते-जलं विसुद्धं तहा वरतवेणं ॥ संपक्खालिज्जते-परिजिण्णोवचियकम्ममला ॥ ८॥ अहिणवकम्मनिरोहो-किज्जइ सुहसंजमेण दुण्डंपि ॥ साहणविहिप्पबोहो-होज्जा नाणेण णण्णेणं ॥९॥