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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः
उदयदुगाभावजुयं - उवसमियं खाइयं च सम्मत्तं ॥ सब्भावदंसणं तं -अपोग्गलसिहपरिणामं ॥ १२६॥ दंसणपयपणिहाणं - एवं छठे दिणे कुण्णिज्ज मुया || सगसगुणणुमाणा - काउस्सग्गाइ पण्णत्तं ॥ १२७॥ उसी भणिओ - सामण्णविही जहेब सिद्धथवे ॥ विणे सेऽण्णत्थवि-संसाहगभव्यमणुएहिं ॥१२८॥ दंसणपयं सरंता - पयत्यसन्भावणं विभावेंता ॥ दंसणरूवा होज्जा - मज्झत्थणरा विणोगं ॥ १२९ ॥ मणुयत्तं पुण्णेणं - लब्भइ सिरिसिद्धचक्क संसेवा || जाणित्ति य हरिसेणं - ताए सहलं भवं कुज्जा ॥ १३०॥ गुणरइरंगतरंगो - अमियविहाणायराइयपमुइओ ।। विविहोवमसिरिसंयो- नियगुणमोयं लहेड सया ॥ १३१ ॥ दंसणपय संपूया -वंदणमाणेहि होज्ज करलाणं || उवसग्गतिमिरविलओ - वर पडिहालद्धिसिद्धीओ ॥१३२॥ दाणकनिहिंदुमिए - वरिसे सोहागपंचमीदिय || सिरिसिद्धचक्कभत्ते - जइणउरीरायणयरन्मि ॥ १३३ ॥ सम्मदंसणथुत्तं - गुरुवर सिरिणे मिनूरिसी सेणं || पउमेणायरिएणं - रइयं जसभद्दपठणहूं ॥ १३४ ॥ पढणाssयण्णसीला - भव्वा पावंति मंगलालीओ ॥ नाणाइथुत्ततितयं - पुण्णाणंदा पणे सामि ॥ १३५ ॥
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