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प्राकृतस्तोत्रप्रकाशः
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तत्तत्थ सदहाणं-एगविहं दुविहमहिगमणिसग्गा ॥ निच्छयघवहारेहि-नायव्यं दुविहमेवं वा ॥ ९६ ॥ दव्या भावा व दुहा-सम्मत्तं कारगाइभेएहि ॥ तिविहं चरविहमेयं-होज्जा सासायणक्खेवा ॥९७॥ सम्मत्तस्स विरोहो-मिच्छत्तेणं ति तेण तम्भेया ॥ अट्टण्हं पयडीण-विसेसठिइयंति तं मुक्खं ॥ ९८ ॥ पंचविहं तं वुत्तं-आभिग्गहियाणभिग्गहणभावं ॥
आभिणिवेसियमेवं-संसइयावत्तमिच्छत्तं ॥ ९९ ॥ मिच्छत्ततत्तबोहा-पालिज्जइ पुण्णपत्तसम्मत्तं ॥ जावंतमुहुसमवि य-लद्धं नासेइ बहुभमणं ॥ १०० ॥ सुलहं चक्कित्ताइ-सम्मत्तं दुल्लहं महाणंदं ॥ ता भावस्यणमेयं-संपत्तिनिहाणनाणदयं ॥ १०१॥ णिव्वुइयबोहिमूलं-पुण्णनयरदारतुल्लसम्मत्तं ॥ सिवहम्मपीढमप्पिय-गुणरयणपीडगं सुहयं ॥१०२॥ एयपहायकलियं-सिलाहए को सुही न सम्मत्तं ॥ दुग्गइदुहं लहेज्जा-लध्धूणवि लोयसामित्तं ॥ १०३ ॥ सम्मत्तणुहावेणं-अक्खयसोक्खं लहिज्ज परमपयं ॥ सम्मत्तधणो धणिओ-णिक्काइधणं महादुहयं ॥ १०४॥ एएणं दाणाई-सहलाई तच्चरयणसम्मत्तं ॥ परमोबंधू मित्तं-परम परलाहरूवामिणं ॥१०५ ॥