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श्री विजयफ्मसूरिविरचितः
छण्हमुदओ पएसा-रसोदओ सम्ममोहणीअस्स ॥ खाओवसमियभावं-असंखवाराउ पाविज्जा ॥८६॥ अंतमुहुत्तं लहुयं-साहियछावहिसायरे गुरुयं ॥ गुणठाणगा चउत्था-सत्तमगुणठाणगावहियं ॥८७॥ लहए खाइयसद्ध-खाओवसमी पवुडभावेहि ॥ पडिओ उण मिच्छत्तं-एयं ता बुट्टिपडिवायं ॥ ८८ ॥ उवसमिए उक्किट्ठा-आवलिया छक्कमेससमयम्मि ॥ खणमाणे य जहण्णा-पढमकसाओदया पडणं ।। ८९ ॥ अप्पत्ते मिच्छत्ते-सम्मत्तासायणं जहिं होज्जा ॥ सासयणसम्मत्तं-जहुत्तकालं च विष्णेयं ॥९० ॥ पडिवाइदंसणं तं-भवचक्के पंचवारसंपत्ती ॥ दोवारा इक्कभवे-बिइज्जगुणठाणगं तम्मि ॥९१॥ खाओवसमियरूवं-णायच्वं वेयगंति पावयणे ॥ एवं समयहिइयं-इगसो लाहो हवइ तम्स ।। ९२॥ खाओवसमियजीवो-लध्धु खाइयविसिट्ठसम्मत्तं ॥ नासिज्ज पगइछक्कं-सत्तण्हं तयणु पज्जते ॥९३॥ सम्मत्तमोहखवणं-करेइ तत्थंतिमे खणे सद्धा॥ जा तं वेयगमिटुं-गुणठाणचउकसम्भावं ॥ ९४ ॥ वेयगसम्मट्ठिी-समयाणंतरखणे हवइ नियमा ॥ खाइयसम्मदिही-ता बुझिगयं तयं भणियं ॥ ९५ ॥