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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः
अणुवमसुक्खनिहाणं-समत्थकल्लाणरुक्रवबीयमिणं ॥ भवसायरपोयनिहं-दुरियतरुकुढारसंकासं ॥१०६ ॥ परमामियतित्थमिण-देवाणधि दुल्लहं च सम्मत्तं ॥ अगणियजीवा सिद्धा-पावंति परं पयं तम्हा ॥ १०७॥ सम्मदिट्ठी जीवा-सयणाइकुडुंबमत्थ पालेंते॥ जइवि तहावियभावा-भिन्ना चिट्ठति पइदियह ॥१०८॥ धत्ती जह खेलेए-रायकुमारे जइवि हिययभावेहिं ॥ चिट्ठइ तहवि विभिण्णा-तह धत्तीसरिससम्मत्ती ॥१०९॥ कुणइ न पावाइं से-निद्दयभावेहि पुण्णकरुणदो ॥ निरुवायपराहीणो-कुर्वतो कंपए हियया ॥११०।। तचायाहिमुहो सो-चारित्तं गिहिउं महुस्साही ॥ गेहडियमुणिवेसं-दटुं पाविज्ज वेरग्गं ॥ १११ ॥ घोरुषसग्गावसरे-वि य सावगकामदेवपमुहाणं ॥ सरइ सया दिलुते-न चलइ सम्मत्तभावाआ ॥ ११२ ॥ तिव्बुदया कामाणं-कइया जाणइ न सुहुमतत्तत्थे ॥ तइयावि सुद्धसद्ध-रक्खइ संकेइ णो लेसा ॥ ११३ ॥ सम्मत्तं संकाए-होज्जा मलिणं " पणाइयारगणे ॥ वारेइ" धम्मकिरियं-जिणपण्णत्तं पसाहेए ॥ ११४ ॥ जिणजिणमयमयरागी-चिच्चण्ण कयवरं विभाविज्जा ॥ सम्मत्ती भववासं-मण्णिज्जा निगडसारिच्छं ॥११५॥