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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः
ससगावणाणुभावा- जो पत्तो सेणियस्स पुत्तत्तं ॥ मेहकुमारं तमहं - जाइसइप्पत्तमहिवंदे ॥ ८४ ॥ जा वरकेवलनाणं - खामंती चंदणं समहिपत्ता ॥ वंदे मिगाव तं - वर संजमनम्मया संगं ॥ ८५ ॥ हच्चा चक्कयारी - जो पत्तो मासछकपज्जंते ॥ तं वरकेवलनाणं-दढप्पहारि णमामि सया ॥ ८६॥ तित्थंकरस्स दाणं- दाऊणं जेण संपया लद्धा ॥ वररमणीजसकित्ती - इह सो विनयंधरो धण्णो ॥ ८७ ॥ समणाणं घयदाणं- दाऊणं सत्यनायगो धण्णो ॥ इह पढमो तित्थयरो - जाओ तं नमामि हरिसेणं ॥ ८८ ॥ धनसारही पभावा- दाणेणं नेमिनाहतित्थयरो || जाओ वरसीलगुणो- तं वंदे भत्तिबहुमाणा ॥ ८९ ॥ कलहीदाणपहावा - जो जाओ वासुपुज्जतित्थयरो ॥ तं महिसंक भावा - णममि सयाहं सुरिंदथुयं ॥ ९० ॥ नयसारभवे दाणा - जा पत्तो चरमतित्थयरभावं ॥ तं सासणवइवीरं-सिद्धत्थसुयं सया वंदे ॥ ९१ ॥ रंगा सुलसा रेवई - दाणपहावा भविस्ससमयम्मि || तित्थयसरूवजुग्गा - जाया ता नममि सब्भावा ॥ ९२ ॥ वरचिंतामणितुल्ले - तित्थयराई थुणन्ति जे विणया ॥ सिं गेहे विला - मंगलमाला सया होज्जा ॥ ९३ ॥
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