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प्राकृतस्तोत्रप्रकाशः
२४१ आभोअइ सिद्धगिरि-जो भव्वो भव्वपुण्णपरिणामो॥ सत्तियहरिसप्पसरं-लहइ कसाओवसंति च ॥ ६॥ जह परमो मंतेमुं-नवकारो तह समत्ततित्थेसुं ॥ विमलायलवरतित्थं-वंदे तं तत्थ बिंबाइं ॥७॥ जस्सज्झाणा पावा-निप्पावा होंति निविलंबेणं ॥ से पुंडरीयसामी-चिट्ठउ मे माणसम्मि सया ॥ ८ ॥ से पुंडरीयगणओ-अम्हाणं हरउ दुरियसंदोहे ॥ चित्तस्स पुणिमाए-जो सिद्धो विमलगिरिसिंगे ॥ ९॥ पडिबोहिय भव्वतई-कयंबतित्थेसरं कयंबगणि ॥ सिढकयंबविहारे-वंदे सिरिवीरपयपउमं ॥१०॥ लच्छी लीला सयला
जसकित्ती सव्वया विसालाओ॥ आरुग्गं विय जम्हा-कयंबतित्थं सया वंदे ॥११॥ गणहरकर्यबसामी-मुणिकोडीचंगसंघपरिवरिओ ॥ संसिद्धो जन्थ तयं-कयंबमणिसं पणिवयामि ॥१२॥ हत्थिगिरी से हत्थो-भवकूवपडतभव्यजीवाणं ॥ बहुपुण्णोदयवंता-भावा पेक्खंति जं मणुया ॥१३॥ भव्वाणं पुणइ सया-हिययाइं पावपंकमलिणाई ॥. सिवसुरलच्छि देए, तं झाए तु प्पमोएणं ॥ १४ ॥ वंदे हत्थिगिरि तं--भरहस्स गया गया जहिं सग्गं॥ पुण्णुण्णइप्पयाणं-जायइ लक्ख मुहं जत्थ ॥१५॥