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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः तिकालं सुहविहिणा, कप्पलयब्भहियभन्चमाहप्पं ॥ वीरं णमंतु भविया !, पसमगुणालंकियं धीरं ॥१६६॥ निभवो सहलो जाओ, जाया मज्झज्ज पावणा रसणा॥ तित्थत्यवणविहाणा, संजाओ सत्तियाणंदो ॥१६७॥ माहप्पजुयस्सेवं, कयंबतित्थस्स सत्तिई पूयं ॥ जत्तामहुस्सवाई, करंति जे कारवेंति मुया ॥ १६८ ॥ अणुमोअंति नरा ते, रिद्धिपवुडिं परत्यकल्लाणं ॥ पाविति बद्धलक्खा, गुरुवयणं नण्णहा होज्जा ॥१६९॥ अत्तजणाण मुहाओ, तहेव गहिऊण संपयायलवं ॥ पाईणसत्थसारं, बिहकप्पो सिरिकयंबस्स ॥ १७० ॥ रइओ ताण पसाया, जेहि गुरूहि कयंवभत्तेहिं ॥ अस्स विहाणे दिण्णा, अणा मज्झं महाणंदा ॥१७१॥ इह मे जं विवरीयं, कहियं होजणुवओगभावेणं ॥ खामेमि सुद्धभावा, जत्तो मे तित्थभत्तीए ॥१७२॥ सिरिनेमिवीरपहुणो-मंगलधम्मा सया पसीयंतु ॥ पुजा सव्वेऽवि तहा-तित्थाहिट्ठायगा देवा ॥१७३॥ बिहकप्पाइविहाणे, साहिज विहाणभावकरुणा ॥ आयरिमोदयसूरी-विज्झागुरुणो जयतु सया ॥१७४॥ समिइनिहाणनिहिंदु-प्पमिए वरिसे सिरिंदभूइस्स ॥ गणिणो केवलदियहे, जइणउरीरायनयरम्मि ॥१७५॥