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प्राकृतस्तोत्रप्रकाश
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जिणसासणगयणतवण-गुरुवरसिरिनेमिसरिसीसेणं ॥ पउमेणायरिएणं, कओ सिरिकयंबबिहकप्पो ॥१७६॥ बिहकप्परयणजोगा-जं पुण्णं लद्धमित्थ तेण सया ॥ भव्वा लहंतु सिद्धिं, कयंबभत्ती मिलउ सययं ॥१७७॥ ॥ समत्तो सिरिकयंबबिहकप्पो विजयपोम्मसूरिप्पणीओ॥
-- -- ॥श्री पर्युषणास्तोत्रम् ॥
॥ आर्यावृत्तम् ॥ सिरिकेसरियाणाहं, पणमिय हियणेमिमरिचरणकयं ॥ वुच्छं मुत्ताणुगयं, पज्जोसवणाइ माहप्पं ॥ १ ॥ पज्जोसवणावसरो, कम्मरखयसमविहाणनिउणयरो॥ सच्चाणंदणिहाणो, लब्भइ पुण्णेण पुण्णेणं ॥२॥ जह बंभीपमुहाणं, अणुहावो दीसए विसिट्टयरो ॥ कालस्स तहा णेओ, आगमवयणेण भव्वेहिं ॥३॥ अस्सि पहाणसमए, अप्पभवा भाविणो पमोया जे॥ पकुणंते दाणाई, चिच्चासवकोहमाणाई ॥ ४ ॥ निमुणंति कप्पसुत्तं, तवम्मि पवरट्ठमं विहाणेणं ॥ वरिसाहसुद्धिकरणं, मणवंछियदाणसामत्थं ॥५॥ आवस्सयजिणपूया, पोसहगुरुभत्तिभाववंदणयं ॥ साहम्मियवच्छल्लं, तहप्पयारं परं किच्चं ॥६॥
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