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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः
सज्झायझाणहेऊ, पसंति सुहदायगो कयंबगिरी ॥ जम्मि पएसे होज्जा, ते सोरट्ठा नरा धण्णा ॥ २६ ॥ दारिददुक्खपसरो, सिग्धं णस्सइ कयंबगिरिवासा ॥ आरुग्गुण्णइनिलओ, सुहभावासेवगो होज्जा ॥२७॥ दारिदायलवज्जे-णवि कायंबेण जस्स णो णडो॥ दारिदकट्ठसेलो, सो णिब्भग्गाहिओ भुवणे ॥२८॥ किं कामधेणुचिंता-मणिकामलयामरागपमुहेहिं ॥ तुट्ठो जस्स कयंबो, पओयणं तस्स नन्नस्स ॥२९॥ जत्थोसहोउ नत्तं, नियमाविमलंसुविसरपसरेहिं ।। तिमिरं नासंति जहा, निद्धणगेहाउ दारिदं ॥ ३०॥ देवाहिटियछाया-सुररुक्खा इह सणायणा होज्जा ॥ वंछियदाणसमत्था, अञ्चभुयविइयमाहप्पा ॥ ३१ ॥ कालस्स हानिदोसा, णवरं होज्जा ण णेत्तविसया ते॥ वरिसाकालम्मि जहा, मेहप्पच्छन्नरविकिरणा ॥३२॥ अहुणा सुरपञ्चक्खा, संतावि तिरोहिया पहाणत्या ॥ तत्कालदोसविलया, नियमा पाउब्भविस्संति ॥३३॥ सोहंति पाउयाओ, मरुदेवीणंदणस्स जत्थ सुहा ॥ महई देउलियाऽविय, जत्थ य रायायणीरुक्खो ॥३४॥ जह तं मुक्खं सिहरं, सयलाहतणोहदाहजलणसमं ॥ मुहवित्थारुवयारं, उभयत्व तहा कयंबगिरी ॥३५॥