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________________ त्रयोदशः सर्गः ६५ जिनके भवस्थिति का परिपाक हो चुका था और जो पापों से अपनी आत्मा को बचाने वाले थे ऐसे लघुकर्मा मनुष्य उनकी उचित एवं शास्त्रसम्मत चारित्र की क्रिया के चुम्बक से आकर्षित हो कर एवं भय को छोड़कर उनके पास आने-जाने लगे । ८०. ऋतुपतेरिवसाघुपतेस्ततः, सहजतो वनराजिविराजिता । द्रुतमपैति जनान्तरसंस्थिता, विरसता रसता समुपागता ॥ जैसे ऋतुपति - ग्रीष्म ऋतु से सहज ही वनराजी की विरसता चली जाती है एवं सरसता भर जाती है वैसे ही साधुपति भिक्षु के प्रति जिनके हृदय में भ्रांतिरूप विरसता थी वह धीरे-धीरे मिटने लगी और सरसता पनपने लगी । ८१. उपगताङ्गवतोति शनैः शनैः, प्रतिदिनं प्रतिबोधयते व्रती । असमविक्रमवान्न च विभ्रते, परुषतां रुषतां द्विषतामपि ॥ लोग आचार्य भिक्षु के संपर्क में धीरे-धीरे आने लगे । महामुनि उनको प्रतिबोध देते, समझाते । ऐसे वे महापराक्रमी मुनिवयं अपने विद्वेषियों के प्रति भी कठोरता का व्यवहार कभी नहीं करते । ८२. समुपयाति कदाचन चैकको, रहसि कोपि कदाचिदनंककः । जिनपत स्वबुभुत्सुरनाश्रवः, श्रवणतोऽवनतोऽनुगतो भवेत् ॥ कभी सरल और बात को मानने वाले व्यक्ति वीतराग के तत्त्व को जानने की इच्छा से एकांत में आचार्य भिक्षु के पास अकेले आते अथवा समूहरूप में आते । गुरुवर की वाणी सुनकर वे अत्यन्त नम्र होकर उनके अनुयायी बन जाते । ८३. सततमेवमवेक्ष्य बुधज्जनान्, मुनिपरक्षितदीर्घमुनी च तौ । स्थिरसपालफतेश शिसञ्ज्ञकौ, कथयतो च यतो मुनिसत्तमम् ॥ आचार्य भिक्षु ने नई दीक्षा ग्रहण करते समय दो मुनियों-मुनि स्थिरपालजी और मुनि फतेहचन्द्रजी को संयम - पर्याय में बड़ा रखा । दोनों मुनियों ने यह देखा कि लोग निरंतर आचार्य भिक्षु से तत्त्व समझते जा रहे हैं, तब उन्होंने मुनिवर्य से कहा ८४. अहह सम्प्रति सन्ति बुभुत्सवो, जिनमतं चलितुं सह सम्भवम् । अलमलं तपसा हृदि मद्वचो, निदधतां दधतां च तदुद्यमम् ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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