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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ७४. अनुतपन्त इवाङ्गभूतस्तवा, हनुलपन्ति मियो मुकुलायिताः ।
वयमतोमृते ननु वञ्चिताः, क्व सुधियः सुधयः सुधयः शुभाः॥
तब मनुष्य पश्चात्ताप करते हुए एवं संकुचित होते हुए परस्पर में ऐसा कहने लगे-'अहो ! ऐसे महर्षियों से हम तो वञ्चित ही रह गये । इसीलिये कहां रहे हम समझदार, चिन्तक और पावन । ७५. सुरमणियदि नाद्रियते नरैः, सुरमणेः क्षतिरस्ति न काचन ।
तवपमानकृतां हि दरिद्रता, सुरमणी रमणीयतमः सदा ॥
मनुष्य यदि चिन्तामणि रत्न का आदर नहीं करता है तो इससे चिन्तामणि की कोई क्षति नहीं होती। यह तो उसका अपमान करने वाले की ही दरिद्रता है। चिन्तामणि रत्न तो सदा ही रमणीय है। ७६. तविषशालि निकुञ्जसमाश्रितो, यदि न पूरयते निजकामनाम् ।
अनुपयुक् खलु तस्य विषीदति, सुरतरोरतरोधन'मस्ति न ॥
कोई मनुष्य देववृक्ष-कल्पवृक्ष के निकुंज में बैठ कर भी यदि अपनी कामनाएं पूरी नहीं करता है तो कल्पवृक्ष का उपयोग न करने वाला ही विषादग्रस्त होता है किन्तु कल्पवृक्ष के आनन्द का अवरोध नहीं होता। ७७. उपगते रुचिचन्दितचन्दने, भवनिवाघनिवाघशमीकरे ।
तदनुपासक एव निराशितो, विघटते घटते न स चन्दनः ।
कोई मनुष्य रुचि को आह्लादित करने वाले एवं ग्रीष्म ऋतु की ज्वाला को शांत करने वाले चन्दन को प्राप्त कर यदि अपनी ज्वाला को शांत नहीं करता है तो वही निराशा को प्राप्त होता है, चन्दन का कुछ बिगाड़ नहीं होता। ७८. तदवसीयमहर्षिमहात्मनः, सुभगसङ्गतिनिष्फलिता वयम् ।
परममार्गसमायिणोऽस्य कि, सुतपसाऽतपसाध्वसहारिणः ॥ ___ इसीलिये हम ऐसे मोक्षार्थी एवं सच्ची तपस्या से समस्त भयों को दूर करने वाले महर्षि महामना की सौभाग्य से प्राप्त संगति का फल नहीं पा सके।
७९. तदुचिताचरचुम्बकचुम्बितः, स्वयमदूरभवस्थितिपाकतः । ___ उपतवं समुपेतुमसाध्वसः, समलगन मलगन्' मनुजन्मिकः ॥ १. तविशः-स्वर्ग, शालिन्-वृक्ष, स्वर्ग का वृक्ष, अर्थात् कल्पवृक्ष । २. रतरोधनं-आनन्दस्य रोधनं । ३. मलात्-पापात् दूरं गच्छतीति मलगत् ।।