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प्रयोदशः सर्वः • ६९. अमरवृत्तिदशान् मिलितं च यत्, किमपि पारणकाय जलाशनम् ।
तापमोक्तुमलग्धपदः प्रभुः, समहितो महितो विपिनं बजेत् ॥
तपस्या के पारणे के लिये भ्रमर वृत्ति से जो शुद्ध आहार, पानी मिलता, उस आहार को भोगने के लिए स्थान की प्राप्ति न होने पर वे पूजनीय महर्षि समता में स्थिर रहकर एकांत वन की ओर चले जाते। ७०. तातले तदितं तरलेतरः, परिविमुच्य कृतार्हतकीर्तनः। .
तदृषिभिः सह संयुमुजे बुधः, समितिभिर्मितिभिरमेषितम् ॥
वे आत्मार्थी महागुरु श्रेष्ठ एषणा समिति से प्रमाण युक्त प्राप्त आहार को वृक्ष की छाया में रखकर, चतुर्विशति स्तव आदि से अर्हत् का गुणोत्कीर्तन कर शांतभाव से अपने सहवर्ती मुनियों के साथ आहार ग्रहण कर लेते थे। ७१. क्वच कदापि लमेत जलं तदा, न लभेत स्वदनं स्वदनं गते ।
न सुलभं सलिलं च तयापि स, न विमना विमनायितताजयी ॥
महर्षिगण गृहस्थों के घरों में जब भिक्षा के लिये जाते तो कभी पानी मिलता तो आहार नहीं मिलता। कभी आहार मिलता तो पानी नहीं मिलता। कभी आहार एवं पानी दोनों का ही योग नहीं मिलता तो कभी अल्प मात्रा में ही आहार-पानी का योग मिलता-ऐसी अवस्था में भी उदासीनता पर विजय प्राप्त करने वाले वे उत्तम संत कभी भी विमनस्क नहीं होते थे। ७२. मिलति यत् खलु तेन समाधिना, प्रवहते वरसंयमयात्रिकाम् ।
अमिलिते न ऋतिः' सहसा तप, उपचोऽपचयोऽशुभकर्मणाम् ॥
जो कुछ आहार-पानी प्राप्त हो जाता, मुनिगण पूर्ण समताभाव से शुद्ध संयमयात्रा का निर्वाह करने के लिए वे उसका उपभोग करते । आहारपानी न मिलने पर दुःखित न होकर ऐसा सोचते कि सहज तपस्या हो गई, शुभ कर्मों का उपचय और अशुभ कर्मों का अपचय हो गया। ७३. अतुलसत्तपसो महिमाद्भुता, रजनिरत्नरचेरिव विस्तृता ।
कतिपयोल्लसिता जनतास्तया, कुमुदिनी मुदिनीव निसर्गतः ॥
उन सन्तों की सच्ची तपस्या की अद्भुत महिमा चन्द्रमा के चांदनी की तरह चारों ओर फैल गई। उस चन्द्रिका से जैसे कमलिनी स्वतः ही प्रमोद को प्राप्त होती है वैसे ही जनता उनकी तपस्या से उल्लसित हुई। १. प्रयाणः। २. ऋतिः-दुख ।