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श्रीमिलमहाकाव्य ६४. परिहता ममता स्वतनावपि, परिवृता समता सुविशेषतः । न च भयं मरणस्य मनागपि, स्वसुविधाऽसुविधाविवधोन्मितः॥
आचार्य भिक्षु अपने शरीर की ममता भी छोड़ चुके थे। वे विशेष रूप से समता से परिवृत थे। उन्हें मरने का तनिक भी भय नहीं था। उन्होंने सुविधा और असुविधा के भार को छोड़ दिया था।
६५. न च विषाद इत्ति तमुत्तमं, स्पृशति नो प्रमदोऽपरमार्थिकः ।
कृषति नो कृशता चरिते क्वचित्, परिभवोऽरिभवोपि न बाधते ॥ .
उन उत्तम महामुनि को विषाद पीड़ित नहीं कर सका, अपारमार्थिक हर्ष स्पर्श तक नहीं कर पाया और न दुर्बलता ही चारित्र को कृश कर पाई तथा न विरोधियों द्वारा किया गया परिभव ही बाधा उपस्थित कर सका।
६६. निहितदृष्टिरसो परमात्मनि, प्रतिपलं रमते च निजात्मनि ।
करतले गृहिताऽसुगणो गुणी, सुकृतिनां कृतिनां प्रथमः स्मृतः॥
वे महागुणीमुनि अपनी दृष्टि को केवल परमात्मा में ही लीन कर निरन्तर आत्म-समाधि में रमण करने लगे। वे अपने प्राणों को अपनी हथेली पर ही रखे रहते थे, इसीलिए धार्मिकों में एवं विद्वानों में (साधना की दृष्टि से) वे प्रथम गिने जाने लगे।
६७. अपि विरोधयितुहितकृन्न किं, सुरमयेत् स्वमिदं मलयमः।
न कुरुते किमु वा हिमबालुका', विकशितं कसितं कृषकं हापि ॥
वे मूनिवर्य अपने विद्वेषियों की हित कामना करते थे । क्या चन्दन का वृक्ष अपने काटने वाले पुरुष को सुरभित नहीं करता? क्या कपूर अपने को चूर करने वाले को सुगन्धित नहीं करता ?
६८. प्रपतनाभिमुखाप्तमहालये, मरकतोद्धृतसारसदाश्रयः ।
तपसि धार्मिकचिन्तनया स्थितः, प्रशुशुभे सुशुभेश्वरपूजितः ॥
वे महामुनि पतनाभिमुख जिनशासन रूप महासौध को थामने के लिये मानों मरकत रत्नों से बने हुए खंभे के रूप में सामने आये । वे इन्द्रों द्वारा पूजित, तपस्या में भी धर्मध्यान में लीन होते हुए सुशोभित होते थे।
१. मलयद्रुमः-चन्दन का वृक्ष । २. हिमबालुका-कपूर ।