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________________ त्रयोदशः सर्गः अपने सहवर्ती मुनियों से यह बात सुनकर आचार्य भिक्षु आनन्दित हुए और सभी श्रमणों के साथ पंडितमरण के लिए घोर तप तपने लगे। वह तपोनुष्ठान देवताओं और विद्वानों को भी आश्चर्यचकित करने वाला था। ६०. परिवृतो प्रतिनिविपिनावनौ, ब्रुमनिरातपसन्निहितोपधिः । प्रतिदिनं सततं तपते तपो, निरुपधे'रुपधेः' परिवजितः ॥ ___ वे भावितात्मा के धनी भिक्षु अपने सहवर्ती साधुओं के साथ प्रतिदिन कहीं एकान्त जंगल में (या नदी के चर में) जाते और अपने भंडोपकरणों को वृक्ष की छाया में रखकर पवित्र भावना से तप तपने लग जाते । वे अपने शरीर पर धारण की हुई पछेवड़ी आदि को भी उतारकर चिलचिलाती धूप में नदी की उत्तप्त बालु में आतापना लेते। ६१. विगतवारिदलाम्बरजाज्वलत्, कडकडायितसतपनातपम् । ततसमुन्नतबाहुरुपस्थितः, स सहते सह तेन गणेन च ॥ वे महामुनि संतों के साथ बादलों से रहित स्वच्छ आकाश में जाज्वल्यमान सूर्य की चिलचिलाती धूप में अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर आतापना लेने लगे। ६२. सततमेकदिनान्तरितं तपः, सुपरिणामपुरस्सरसर्पकम् । दुरितसन्ततिकृन्तनकारक, प्रतपते तपतेजसि दुर्वरः॥ तपतेज में दुर्धर स्वामीजी शुभभाव पूर्वक पापों की संतति को नष्ट करने वाले एकान्तर तप की निरंतर साधना करने लगे। ६३. दमितपञ्चहषीकतुरङ्गमः, शमितबाह्यसमुद्रतरङ्गतः। विजितघोरकषायमहोरगः, पुलकितोऽलकितो वृषसाधने ॥ पांच इन्द्रियरूप तुरङ्गमों को वश में करने वाले, बाह्य विकार रूप समुद्रों की लहरों पर विजय पाने वाले तथा घोर कषायरूप विषधरों को जीतने वाले सुन्दर केशों से अलंकृत वे महामुनि अपनी धर्म साधना में ही उल्लसित रहने लगे। १. निर्व्याजात् । २. वस्त्रादेः। ३. शमिता बाह्यसमुद्रतरंगता येन । ४. अलकाः केशाः।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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