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श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
कुछेक मनुष्य क्षणिक वैभब, मान, धन एवं स्वार्थ के लिये रणाङ्गण में अपना शिर भी दे देते हैं तो अक्षय सुखों के लिए यदि मेरा अत्यंत मंथन भी होता हो तो भला कैसा भय ?
५५. व्यपजहामि परोद्धरणं ततः, परिवहच्छिरसा सुगुणानिमान् । निजकनिस्तरणं वितनोम्यहं स्वतरसा तरसाऽतरसातकम्' ॥
आज लोग यथार्थ को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं । अतः मैं अब दूसरों के उद्धार की प्रवृत्ति को स्थगित कर सभी सद्गुणों को शिरोधार्य कर अपने आत्मबल से अनन्तसुखों से अन्वित कल्याण की शीघ्र ही साधना करूंगा ।
५६. समभिमन्त्रय तदा सहवर्तनो, वरगभोरसदाकृति मद्गुरुः । समवबोधयतेस्म मुनीन् वरान्, सहृदयां हृवयान्तरसत्कथाम् ॥
ऐसा चिन्तन कर गंभीर एवं सदाकृति के धारक आचार्य भिक्षु ने अपने सहवर्ती संतों को आमन्त्रित कर उन्हें अपने अन्तःकरण की यथार्थं भावना की अवगति दी ।
५७. समुपलक्ष्य तदुक्तयथायथं, सहमताः श्रमणा अपि सञ्जगुः । निजनिजोद्धरणं शरणं हि तद्, वरतरं रतरञ्जितचेतसा ॥
तब श्रमण भी उनके अन्तर हृदय की तड़फ को देखकर, उनसे सहमत होते हुए बोले- 'हे महामुने ! इस समय श्रामण्य में आनन्दित चित्त से अपना-अपना उद्धार करना ही श्रेष्ठतर है ।'
५८. कृतपुरातनकर्म विपाकिनो, न भविनोषि च सङ्गतिकारिणः । उदारमुनिनिजसाधनेऽनवरतं वरतन्त्रविधेर्लगेत् ॥
तत
पुरातन कर्म के विपाकोदय के कारण भव्यात्मा भी संगति नहीं कर पाते, इसीलिये उदारमना मुनि को यदि जनकल्याण न दिख पड़ता हो तो शास्त्रविधि के अनुसार अनवरत अपनी आत्म-साधना में ही लगे रहना चाहिए ।
५९. इति निशम्य समेः श्रमणः सह मुनिपतिर्व रपण्डित मृत्यवे । खरतपः परितप्तुमवर्त्तत, सुमनसां मनसां परिचित्रकम् ॥
१. अपारं सातं - सौख्यं यस्मिन् ।