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त्रयोदशः सर्गः
यदि निर्मलवृत्ति से जिनमत की यथार्थ आराधना, प्रभावना की जाए तो उसका अचिन्त्य फल होता है। अतः मैं छोटी-बड़ी विधियों के सहारे जिनमत की प्रभावना करने के लिए उद्यत हुआ हूं।
५०. परमिहाच च सा मम भावना, फलवती भवितुं बहु दुर्लभा । अभिनिवेशवशाः पुरुषास्ततो, मम मता ममता न मनस्विनी ॥
परन्तु आज मेरी वह अभिलषित भावना फलवती हो यह अत्यन्त दुर्लभ है क्योंकि लोग अत्यंत हठाग्रही हैं। इसलिए सत्पथ के प्रचार की मेरी ममता सफल नहीं होती।
५१. फलवती न विनैव समग्रता, समभवच्चरमार्हतदेशना ।
तदिह का गणना मम संसहे, विषमतां समतान्तरितोप्यतः॥ ___सामग्री के बिना भगवान् महावीर की भी प्रथम देशना फलवती नहीं हो सकी तो मेरी तो गणना ही क्या है ! इसलिए समता में लीन रहकर इस विषमता को मुझे सम्यक् प्रकार से सहन करना है।
५२. इतरकष्टशतानि च सासहिजिनवचो विषमाचरणानि न । तदनुशीलनतः पतयालुता, भवमवेऽवभवेश्वरताहरी ॥
मैं अन्यान्य सैंकड़ों कष्टों को सहन कर सकता हूं परन्तु जिनवचनों से विपरीत आचरणों को सहन नहीं कर सकता, क्योंकि जिनवचनों से विरुद्ध आचरण करने पर भव-भव में मोक्ष सुखों को हरण करने वाला पतन ही होता है।
५३. निजचरित्रसुरक्षणपूर्वकं, स्थविरकल्पवतां वशिनां वरम् । सदितर प्रतिबोधनकर्मकं, तरणतारणतापवधारिणाम् ॥
तरण-तारण पद को सार्थक करने वाले स्थविर कल्पी मुनियों को सर्वप्रथम अपने चारित्र की रक्षा करके ही गृहस्थों को धर्मोपदेश देना चाहिये।
५४. क्षणिकवैभवमानधनायंपि, निजशिरोर्पयतीह रणाङ्गणे ।
मम तवाऽक्षयसौख्यनिदानिनः, प्रमयनेऽमयनेस्ति भयं कुतः।
१. मोक्षस्य अवगतः भवो यस्मात् स अवभव । २. गृहिणा।