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________________ ५८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् अहो ! इस दुःषम काल की कितनी करालता ! आज भगवान् का मत दिन-प्रतिदिन क्षतिग्रस्त होता जा रहा है । यह देखकर मेरा मन अत्यन्त व्यथित है और वह सबल मन भी निर्बल होता जा रहा है। ४५. अयि विभो ! ऽन्तिमवाङ्मयकोत्तराध्ययनसूत्रवरे प्रथितस्त्वया। सुमतदर्शनवृत्ततपांसि हि, प्रगदितोऽगवितोमरसत्पथः ॥ हे प्रभो ! आपने अपनी अन्तिम वाणी द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र में यह निर्दिष्ट किया है कि सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र एवं सम्यग् तप ही मोक्ष का निरवद्य मार्ग है । ४६. अहमतोन्यतमे क्वचिदेव वाऽभ्युपगति सुकृतस्य करोमि नो। जिनमृतेभ्युपयामि न दैवतं, विगतरङ्गतरङ्गतरं प्रभो !॥ इसीलिये मैं भी आपके धर्म-दर्शन के अतिरिक्त और किसी भी धर्मदर्शन को स्वीकार नहीं करता और रागद्वेष से रहित जिनेश्वर देव को ही मैं आराध्य देव मानता हूं। ४७. गुरुमुवतिनं च पुनर्भवदभिहितं सुकृतं समुपाददे । तदपरं न ममाभिमतं मतं, कलकलापकलापकलापतः ॥ __ जो पांच महाव्रतों के धारक तथा आपकी आज्ञा के आराधक हैं, वे ही मेरे गुरु हैं और आप द्वारा प्ररूपित धर्म को ही मैं स्वीकार करता हूं। इन लक्षणों से भिन्न जो देव, गुरु और धर्म हैं चाहे विद्वान् लोग उनकी कितनी ही स्तुति क्यों न करें, मैं उन्हें स्वीकार नहीं करता। ४८. पतितपावन ! हे परमेश्वर !, स्वयि समर्पितजीवनमावनः । शिरसि संधृतवांस्तव शासनममय भयवम्मविवजितम् ॥ हे पतितपावन ! हे परमेश्वर ! मैं मेरा सर्वस्व आपके श्री चरणों में समर्पित करता हूं और अभयदान देने वाले एवं भय तथा दम्भता से रहित आपका शासन मैं शिरोधार्य करता हूं। ४९. जिनमतस्य यथार्थविभावनाफलमचिन्त्यमनाविलवृत्तितः। तबहमुखमवानऽभवं मुदा, सुमहताऽमहता विधिनाऽपिच॥ १. प्रकृष्टेन विगता रंगतरंगा:-कामभोगा: यतः। २. कलाधिपानां कलापकस्य-समूहस्य मिष्टालापात् ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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