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प्रयोदशः सर्गः
.३९. स्वविपरीतकृतोक्तविसिद्धयै, जिनमतच्युतबद्धपरस्पृहाः।
नियमितेतरवाक्परिजल्पने, सयतनाः यतनापरिमोषिणः ॥
हे प्रभो ! वे अपनी विपरीत मान्यताओं को सिद्ध करने के लिए जिनमत की मान्यताओं को छोड़कर अन्यान्य मतों की मान्यताओं में आबद्ध होने की स्पृहा कर रहे हैं और यतना को लूटने वाले वे जिनमत के नियमों से विपरीत भाषण करने में तुले हुए हैं। ४०. इह मनोभिमनोरथसिद्धये, प्रमितिफल्गुकुतर्कवितर्कतः । शिथिलता प्रसवाय समन्ततः, प्रवणताऽवनताऽवनता' बहु ॥
हे प्रभो ! वे अपने मन इच्छित मनोरथ की सिद्धि के लिये प्रमाण शून्य कुतर्क और वितर्क करते रहते हैं और चारों ओर से शिथिलता को पनपाने के लिए अत्यंत प्रवणता से तुले हुए हैं। ४१. अहरहोऽमित उत्तरमुत्तरमभिमुखः पतनस्य मुहर्मुहुः । जिनमताचरणाच्चलिताशया, अनिभृता निभृता अपि सद्गणाः ॥
हे भगवन् ! जिनमत के आचरणों से चलित आशयवाले वे संतगण रात-दिन चारों ओर से उत्तरोत्तर पतन के अभिमुख होते जा रहे हैं और जो विनीत थे वे भी अवनीत से दिखाई दे रहे हैं।
४२. मतिविहीननिकेवलवेषिण, उपचयन्त इवाध परस्परम् । तदितरेतरवृत्तकुमान्यता, प्रभृतिभिर्भृतिभिर्भवतां गताः॥
इस संसार में मतिविहीन वेषधारी साधु ही पुष्ट होते जा रहे हैं एवं जिनमत से भिन्न अन्यान्य दर्शनों की क्रिया एवं मान्यता से अपना पोषण करते हुए विहरण कर रहे हैं तथा दयनीयदशा को प्राप्त हो रहे हैं।
४३. निहतसद्गुणवेषविभूषया, मुनिगणः श्रियमाश्रयते नहि ।
नवपलाशपलाशमणीवकं, ससुरभेः' सुरभे रहितं यथा ॥ ___केवल गुणशून्य वेष-भूषा मुनियों को वैसी ही शोभा नहीं देती जैसे मनोहर सुरभि रहित नवपत्र युक्त पलाश वृक्ष के फूल। ४४. अहह ! दुःषमकालकरालता, जिनमतं च कियत् क्षतिसन्मुखम् ।
समवलोकयतो व्ययते मनोऽप्यसबलं सबलं बहु जायते ॥
१. अवनं रक्षणप्रीत्योः । २. सुरभिणा-सौन्दर्येण सहितस्य ।