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श्रीमि महाकाव्यम् __ हे प्रभो ! इस दुःषम काल में जिनमत के अनुयायी कोई भी राजा दिखाई नहीं देता और न उच्च पदाधिकारी राजकर्मचारी ही नजर आ रहा है। अन्यत्र लोग प्रभाव संपन्न हैं और वे अजित वैरियों को जीतने में सक्षम हैं। ३५. अभिधयर्षय' एतक एव यन्निजनिजोदरपूत्तिकृते स्वयम् ।
परसमस्तमतस्य मतस्य किं, विशरणाऽशरणाः शरणं श्रिताः॥ ___ हे प्रभो ! मानो जिनको किसी की शरण नहीं है या शरण-विकल हो गये हैं ऐसे नामधारी साधु अपनी-अपनी उदरपूर्ति के लिए आज समस्त परदर्शनों के मन्तव्यों की शरण ताक रहे हैं। ३६. क्व च जिनेन्द्रमतं महितं परमिलति नैव तयापि तथा विधाः। सुगुडगोमयवत्समकारकाः, कुमतयोऽमतयोऽमतयो निजाः॥
हे प्रभो ! कहां तो यह जगत्पूजित जिनेश्वर देव का मत, जिसकी समानता करने वाला अन्य मत नहीं है, फिर भी कुछेक अकुलीन, बुद्धिविकल एवं गुड और गोबर को समान करने वाले दुर्बुद्धि मनुष्य जैन दर्शन
और इतर दर्शनों को एक करने में तुले हुए हैं। ३७. कथमिवाध्वनि नेतुमिमान् मियो, विवदतः प्रतियन्ति न यान् स्वयम् । भवति भूरिभविष्णुभिदुद्धिदा', वसुमती' सुमतीशसमोपि कः॥
हे प्रभो! परस्पर कलह करने वाले एवं एक दूसरे का अविश्वास करने वाले साधुओं को नाना प्रकार के भेदों से समझाने वाले, अष्ट बुद्धि के धारक एवं सुमति के ईश्वर स्वयं वृहस्पति भी सुमार्ग में लाने के लिए समर्थ नहीं हैं।
३८. सुनयतो गदिता इमके मिथः, कलहिता अपि सत्यनिरूपकः ।
समुदिता ववितुं वितयं मुधा, रमसिता भसितान्तरचेतसः ।। . हे प्रभो! सत्य का निरूपण करने वाला कोई व्यक्ति न्याययुक्त वचनों से इन संतों को यदि कुछ कहता है तो वे परस्पर में कलह कर उठते हैं एवं जिनके हृदय क्रोधाग्नि से भस्म हो चुके हैं ऐसे वे संत उत्सुकता के साथ एकत्रित होकर असत्य प्रलाप करने लग जाते हैं। १. नामधारिसाधु । २. बहुभवनशीलभेदानां प्रकाशनेनापि । ३. अष्टो मतयो यस्य । ४. वृहस्पतितुल्योऽपि । ५. भस्मीभूतमानसाः।