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________________ त्रयोदशः सर्गः ५५ यदि समस्त मनुष्य विषाक्त विषाङ्कुरों को ही सींचने लग जाएं और अच्छे उद्यानयुक्त शिविर का नाश करने के लिए तत्पर हो जाएं तो फिर क्या करना एवं क्या नहीं करना - यह विवेक ही लुप्त हो जाता है। ३०. भवति नाद्य सुलोचनगोचरः, परमरोचकताच कितार्थविद् । कुमतिभिश्च कदा ग्रहविग्रहैरविकृतं विकृतं जिनशासनम् ॥ आज कोई भी अतिशय ज्ञानी दृष्टिगोचर नहीं होते । इसीलिये तो ये कुमति को धारण करने वाले लोग कदाग्रह और विग्रह से जिनेश्वर देव के निर्मल शासन को भी विकृत करते जा रहे हैं । ३१. समय एव करोति बलाबलमिति निदर्शयितुं कलिकेलितः । निखिलमान्यमिदं जिनदर्शनं नृपतयोऽपतयोऽपि च तत्यजुः ॥ 'समय ही मनुष्य को बलवान् एवं बलहीन बनाता है' - यह निदर्शित करने के लिए ही कलियुग में जगत्मान्य जिनदर्शन को स्वतंत्र राजा भी छोड बेठे हैं । ३२. श्रमणवेषमनुत्कटवम्भतापरमपातकताप्रतिपालना । फलति सम्प्रति किञ्च निवेद्यते, कलिकलालिकलामकथावली' ॥ हे प्रभो ! इस श्रमण वेष के भीतर उत्कट दाम्भिकता एवं परमपातकता की प्रतिपालना फलती जा रही है। इस कलियुग में मिथ्या लाभों की बात क्या बताऊं ? ३३. जिनवृषं क्षुधितेव च हुण्डिकाभिधभिदेलिमभागऽवसप्पणी । ग्रसितुमुत्कणिता समुपस्थिता, किमऽनिमित्तनिमित्तवती विभो ! ॥ हे प्रभो ! यह नश्वरता को समेटे हुए हुण्डा अवसर्पिणी मानो क्षुधा से पीडित - सी होती हुई बिना प्रयोजन ही कारण बन जिनेश्वर देव के धर्म का भक्षण करने के लिए अपना फण उठाकर तैयार हो रही है । 1 ३४. यदनुगो महिपोपि च कश्चन, न च महोच्चपदोऽन्यनरो मतः । तदितरेप्यनुभावयुताः सदा प्रदमिताऽदमितारिगणास्त्विह । १. कले: कलाया अलिकलाभस्य । २. विना प्रयोजनं कारणवती ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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