SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ श्रीमिअमहाकाव्यम् . हे विभो ! शची के समान प्रभा को धारण करने वाली जिनकी सुन्दर स्त्रियां थीं, उन सुन्दरियों को परमोच्च वैराग्य से त्याग कर जिन्होंने दीक्षा धारण की थी, ऐसे चरम केवली जम्बूस्वामी भी आज आंखों से ओझल हैं। २५. बुकमला परिमुह्य शिवं प्रति, जिगमिषूनवरुध्य वृताः स्वयम् । वचन ते प्रभवादिगणेश्वराः, सुविनयामि नयामि कुतो व्यथाम् ॥ प्रभो ! मोक्ष में जाने की इच्छा रखने वाले उन प्रभव आदि आचार्यों को स्वर्ग की लक्ष्मी ने मोहित कर उन्हें स्वर्ग में ही रोक लिया। ऐसे प्रभव स्वामी आदि आचार्य भी आज कहां हैं ? इसलिये मैं किसके सामने कहं और कैसे अपनी व्यथा को दूर करूं। . . २६. अवधिकेवलमानसबोधिनो, मुनिवरा न हि पूर्वधरा अपि । क्व कलयामि निजात्मकपूत्कृतिमविकलां विकलां बहुसम्भृताम् ॥ आज इस संसार में अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी एवं पूर्वो के धारक मुनि भी नहीं हैं । इसलिए मैं व्यथा से छलाछल भरी हुई अपनी बात को पूर्ण या अपूर्ण रूप से किसके समक्ष व्यक्त करूं? २७. विषमता पतिता जिनशासने, क्व च विवेचयितुं प्रतिचेष्टघते। समभवन्नवका अपि भक्षका, मुनिवरा निविडायितवृत्तकाः॥ हे प्रभो ! आज जिनशासन पर विपत्ति आ पड़ी है। मैं इसका क्या विवेचन करूं? जो मुनि रक्षक एवं चारित्र की सघन पालना करने वाले थे, वे भी आज भक्षक बन बैठे हैं। २८. सकलरक्षकमम्बरमम्बरं, स्फुटति चेनिरुणद्धि कवं च कः।। यदि धरा धृतिमुमति किं ततः, कलयते लयते क्व च विष्टपम् ॥ समष्टि की रक्षा करने वाला यह आकाश रूप अम्बर ही यदि फट जाये तो कौन किसको रोक सकता है ? यदि यह धरा भी धैर्य को छोड़ बैठे तो यह संसार क्या करे और विश्व का आधार क्या बने ? २९. यदि समेपि विषाक्तविषाङकुरं, समभिषिञ्चयितुं परितः पराः। सुशिविरं परिपाटयितुं तता, अकरणं करणं किमु वा ततः॥ . १. लयते-समर्थयते श्लिष्यते वा ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy